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Kavita Kosh से
और इस पूरे शर्मनाक दृश्य को
अपने क्षोभ से भिंगोता हुआ
इधर तट पर नावें हैं
किनारे से लगी हुयी
इन्हें कहीं जाना भी है पता नहीं
पर तुम्हारी यह ट्रेन तो चली जा रही है ये रक्तिम हाथ उसे रोकने को नहीं उठे हैं
वे बस हिल रहे हैं
इस खुशी में कि
तुमने इन हाथों का दर्द समझा
और शर्म से लाल तो हुयी
फिर तो फिराक को तो पढा ही है तुमने'हुआ है कौन किसी का उम्र भर फिर भी।भी...'।
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