भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"दुर्गा पूजा / मानोशी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मानोशी |अनुवादक= |संग्रह= }} <<<<<=== इस ल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
08:58, 26 अगस्त 2019 का अवतरण
<<<<<=== इस लाइन को डिलीट कर यहाँ उचित श्रेणियाँ डालें ===>>>>>
माँ का फिर आह्वान हुआ है
जगत उल्लसित पुलक उठा।
शरत-प्रात की धवल धूप में
ठण्ड गुलाबी नहा रही
कास फूल की लहर चली है
हवा हर्ष की बहा रही
लाल पाड़ की घूँघट ओढ़े
दीपक थाली हाथ लिये
पूजा को जब चली सुहागिन
हर दिक् चंदन महक उठा।
शंख नाद के साथ उलू ध्वनि
थाप ढाक की मतवारी
बच्चों के दल के कलरव से
विहँस उठीं गलियाँ सारी
प्रतिमायें सज उठीं मनोरम
पंडालों से सजे शहर
आलोकित जग मन उत्साहित
हृदयांचल भी दमक उठा।
पुष्पांजलि संग मंत्रोचारण
रंग अल्पना के निखरे
महिषासुर मर्दिनी पधारो
आवाहन के स्वर बिखरे
हे दुर्गे, हे दुर्गतिनाशिनि
जग अँधियारा दूर करो
माँ के श्री चरणों में आकर
अश्रु दृगों में छलक उठा।