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"वह नदी में नहा रही है / कुमारेंद्र पारसनाथ" के अवतरणों में अंतर

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| रचनाकार= कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह  
 
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वह नदी में नहा रही है  
 
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नदी धूप में
 
नदी धूप में
और धूप उसके जवान अंगों की मुस्‍कान मे
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और धूप उसके जवान अँगों की मुस्‍कान मे
 
चमक रही है।
 
चमक रही है।
 
मेरे सामने
 
मेरे सामने
एक परिचित खुश-बू
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एक परिचित ख़ुशबू
 
कविता की भरी देह में खड़ी है
 
कविता की भरी देह में खड़ी है
धरती यहां बिल्‍कुल अलक्षित है-
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धरती यहाँ बिल्‍कुल अलक्षित है
अंतरिक्ष की सुगबुगाहट में  
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अन्तरिक्ष की सुगबुगाहट में  
उसकी आहट सुनी जा सकती है।
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उसकी आहट सुनी जा सकती है ।
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आसमान का नीला विस्‍तार
 
आसमान का नीला विस्‍तार
और आत्‍मीय हो गया है।
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और आत्‍मीय हो गया है ।
 
शब्‍द
 
शब्‍द
अर्थ में ढलने लगे हैं।
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अर्थ में ढलने लगे हैं ।
 
और नदी
 
और नदी
उसकी आंखों में अपना रूप देख रही है।
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उसकी आँखों में अपना रूप देख रही है ।
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आसमान के भास्‍वर स्‍वर उसके कानों का छूते हैं,
 
आसमान के भास्‍वर स्‍वर उसके कानों का छूते हैं,
और वह गुनगुना उठती है।
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और वह गुनगुना उठती है ।
उसके अंदर का गीत
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उसके अन्दर का गीत
 
[एक नन्‍हा पौधा]
 
[एक नन्‍हा पौधा]
सूरज की ओर बांहे उठाए लगातार बढता जा रहा है।
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सूरज की ओर बाँहे उठाए लगातार बढता जा रहा है ।
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17:57, 8 सितम्बर 2019 के समय का अवतरण

वह नदी में नहा रही है
नदी धूप में
और धूप उसके जवान अँगों की मुस्‍कान मे
चमक रही है।
मेरे सामने
एक परिचित ख़ुशबू
कविता की भरी देह में खड़ी है
धरती यहाँ बिल्‍कुल अलक्षित है —
अन्तरिक्ष की सुगबुगाहट में
उसकी आहट सुनी जा सकती है ।

आसमान का नीला विस्‍तार
और आत्‍मीय हो गया है ।
शब्‍द
अर्थ में ढलने लगे हैं ।
और नदी
उसकी आँखों में अपना रूप देख रही है ।

आसमान के भास्‍वर स्‍वर उसके कानों का छूते हैं,
और वह गुनगुना उठती है ।
उसके अन्दर का गीत
[एक नन्‍हा पौधा]
सूरज की ओर बाँहे उठाए लगातार बढता जा रहा है ।