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बंधु! गांव की ओर न जाना
वर्षों से जो बसा स्वप्न था
वह अब लगता है बेगाना
देहरी का आमंत्रण झूठा
रिश्तो में लालच है पैठा
आँगन का बोझिल सूनापन
मुँह लटकाए गुमसुम बैठा
चहल-पहल से भरे बरोठों
का मन में बस बचा ठिकाना
जहाँ नहीं अब नैन बिछाकर
कोई स्वागत करने वाला
माथा चूम पीठ सहलाकर
नहीं बाँह में भरने वाला
पलकों पर उमड़े बादल का
व्यर्थ वहाँ मतलब समझाना
लहराती पीपल छाया को
जहाँ मिला है देश निकाला
निर-अपराध नीम तरुवर को
जिसने मृत्युदंड दे डाला
ऐसे निर्मोही अपनों के
बीच पहुंँच मन नहीं दुखाना