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अजब तेरी कुदरत गजब तेरा खेल
अंडे में आदमी और बीजों में तेल
पेड़ों में पम्प लगे छन्नी के बाद
शुद्ध जल पर हर फल का अलग अलग स्वाद
नमकीन नहीं होता है कोई भी फल
नमक विहीन होता है नारियल का जल
ऐसी हो मशीन गर मरुथल के पास
मिट जाए उस की कई बरसों की प्यास
दिल गुर्दा जिगर आँख नाक और कान
एक कोशिका के इतने रूप इतने काम
सूरज का ताप पिए ठंडी है चांदनी
ब्रम्ह तो गूँज रहा मूक बधिर यामिनी
फैला ब्रम्हांड कोई ओर है न छोर
चकित है भ्रमित है बुद्धिवादी मोर
हवा है पर आँख को दिखती ही नहीं
शिल्प है तो शिल्पी भी ज़रूर होगा कहीं
घूमती धरती हम अचल अपनी जगह
धरती से अलग है क्या उसकी सतह
विराट जब सुनता समर्पण के बोल
माँगता है बाँसुरी राधिका पट खोल।।