भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKRachna
|रचनाकार=कमलेश भट्ट 'कमल'
|संग्रह=हाइकू 2009 / गोपालदास "नीरज"
}}
[[Category:हाईकुहाइकु]]{{KKVID|v=YmXRyh9ca0I}}[[Category:हाइकु]]
<poem>
आप से मिले तो लगा क्या मिलना किसी और से ! ढूँढ़ता रहा खुद को दिन रात ढूँढ़ न पाया ! छोटा कर देरातों की लम्बाई भी गहरी नींद । छीन ही लिया नदी का नदीपन प्यासे बाँधों ने । रिश्तों से ज्यादा तनाव बसते है घरों में अब ! युग-युगों से सोए पड़े पहाड़ जागेंगे कब ? गाँवों से लाता शुद्ध आक्सीजन भी वश न चला । भीड़ तो बढ़ी विरल हो चले हैं रिश्ते परंतु । रात होते ही गोलबन्द हो गये चाँद-सितारे । घिर गया है विषैली लताओं से जीवन- वृक्ष । बुझते हुए पल भर को सही लड़ी थी लौ भी । मैं नहीं हूँ मैं, तुम भी कहाँ तुम सब मुखौटॆ है ।
</poem>