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"रौद्र–रूद्र / प्रताप नारायण सिंह" के अवतरणों में अंतर

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प्रशस्त शस्त शैल पर विशाल वृक्ष के तले
सुवर्ण व्याघ्र चर्म पर अखंड ज्योति सा जले
अनादि आदि देव थे समाधि में रमे हुए
सती वियोग का अथाह दाह प्राण में लिए

विरक्त, भक्त, सृष्टि के सभी क्रिया कलाप से
हरें त्रिलोक-ताप जो, जलें विछोह ताप से
समाधि साध कर रहे विषाद की विवेचना
विदीर्ण जीर्ण प्राण की बनी सुत्राण साधना

ललाट चन्द्र मंद आज छिन्न भिन्न चन्द्रिका
कराल व्याल पीटते कपाल खोह भित्तिका
प्रदाह सिक्त डोलती, न गंग में तरंग था
गणादि आदि घूमते अतेज, तेज भंग था

उधर विनाश में लगा असुर नरेश "तारका"
अदम्य शक्ति, तेज, ताप था अतुल्य बाँह का
मिला अखंड वर बना अमर्त्य, मर्त्य लोक में
परास्त सुर हुये, दनुज अजेय था त्रिलोक में
सदन विहीन दीन हीन देवता डरे डरे
निरीह यत्र तत्र क्लांत क्रांत हिय लिए फिरें
सुजान, ऋषिगणों, समस्त को अतीव त्रास था
मचा हुआ था त्राहि त्राहि लोक-त्रय निराश था

विफल हुए जतन सभी उपाय जो न कुछ मिला
सुरेश संग देव-दल बिरंचि-द्वार को चला
 गहन रहस्य पूछने अधम असुर विनाश का
परम पिता विधान-विज्ञ से उपाय त्रास का

दुरास के विनाश का विहित रहस्य खोलते
यथा समक्ष देव, अज विधान-मर्म बोलते
किसी विधान श्रीनिधान शम्भु पाणिग्रह करें
प्रवीर रुद्र-जात दैत्य मार सृष्टि-दुख हरे

परन्तु हैं महेश तो समाधि में रमे हुए
मिटा उमंग, थे अधर समस्त के जमे हुए
करे समाधि भंग कौन रुद्र की त्रिलोक में
विलोकने लगे समस्त मुख निमग्न शोक में

तभी वहाँ, सुरेन्द्र के गुहारि पे प्रकट हुए
बसंत संग पंचबाण पुष्प चाप कर लिए
विनत विबुध करें मनोज से समस्त याचना
विकट विपत्ति का पयोद आज छा गया घना

असुर विनाश हेतु रुद्र ध्यान भंग जो करो
प्रगाढ़ दाह सिक्त सृष्टि का अतीव दुःख हरो
कहा विहँसि मनोज ने दुरूह यह सुझाव है
वरण समान काल के महेश से दुराव है

परन्तु श्रुति कहे सदा सुजान ज्ञानवान तो
सुकर्म के लिये मिटा दिए सुदेह प्रान तो
नहीं मुझे विक्षोभ हो सुकार्य के लिये मरूँ
हिताय सृष्टि, भंग हो समाधि, कामना करूँ

मदन चले बसंत, राग, ले गणादि संग को
प्रवेग काम का लिये, महेश ध्यान भंग को
तुरत प्रभाव में लिए समस्त सृष्टि-जन्य को
विराग,ज्ञान,ध्यान,धर्म,तप,चले अरण्य को

विनत विशाल वृक्ष चूमते उदार वल्लरी
समुद्र ओर बह चली सरित, तड़ाग, निर्झरी
समय बिसार, बन्ध त्याग व्योम, जल, मही चरी
चराचरे समस्त ने अनंग की शरण धरी

मनुज, दनुज, पिशाच, भूत, व्याल, देव, तापसी
हुए सुजान मार वश विरक्त, सिद्ध, मुनि , ऋषी,
सदा विलोकते जगत समस्त व्रह्म कण लिये
विवेक, धर्म, धैर्य त्याग काम की शरण लिये

वियंग के समीप मार दल सहित उतर गये
विलोक ध्यान मग्न भूतनाथ तेज डर गये
फिरे जो लोक लाज थी, रुके तो काल गाल था
मरण अवश्य आज, क्रान्त स्वेद पूर्ण भाल था

सुरम्य दृश्य कंज मंजु वाटिका प्रकट किया
विविध,सुमन, लतादि से दिशा समस्त भर दिया
अपूर्व नृत्य, गान, काम-सिक्त अप्सरा करें
जतन किये मनोज कोटि, ध्यान शिव नहीं धरे

अचल महेश जो दिखे अहम जगा अनंग का
अजीत चाप पर चढ़ा अचूक शर निषंग का
प्रखर प्रचंड पुष्प वाण रूद्र वक्ष बेधता
प्रविष्ट प्राण में हुआ अभेद्य त्राण छेदता

वियंग देह कँपकँपा अनंग-वाण से उठा
अनंत व्योम भूमि स्वर्ग काँप प्राण से उठा
उठा प्रलय सदृश निनाद सृष्टि-अंग-अंग से
सिहर उठा कराल काल भाल के तरंग से

चला अदम्य काम मिस्र हो लहू के संग जो
उठा प्रचंड ज्वार अब्धि पे झुका हो चन्द्र जो
अचंड शीश शेष का विकंप, कंप मेदिनी
सकल चराचरे सभय विपत्ति देखते घनी

फड़क फड़क भुजा उठी, तरंग अंग भर रहा
अनिल सुदीर्घ श्वास का अनल प्रवाह कर रहा
धधक धधक उठी, प्रचंड तप्त रक्त वाहिनी
महेश के शरीर से बहे तड़ित प्रदाहिनी

डमक डमक बजा डमर, त्रिशूल खनखना उठा
प्रचण्ड नाद भर गया, दिगंत झनझना उठा
लिपट भुजंग रुद्र कंठ जीभ लपलपा उठा
महा कराल काल ज्यों विक्षुब्ध कँपकँपा उठा

प्रतप्त सुरनदी वृहज्जटाओं में उबल रही
पतंग सा प्रदीप्त चन्द्र, चन्द्रिका थी जल रही
महेश के त्रिनेत्र पट सवेग फडफडा उठे
रसाल पत्र में छुपे मनोज थरथरा उठे

अखण्ड रोष नीलकंठ का प्रवेग से चला
ज्वलल्ललाट मध्य दीप्त दिव्य चक्षुपट खुला
प्रकट हुई प्रदाह-सिक्त ज्यों प्रभा समुज्ज्वला
असंख्य ज्योति पुंज संग नाचती हो चंचला

मिली जो दृष्टि आम्र वृक्ष पर छुपे मनोज से
हुए तुरंत भस्म कामदेव रूद्र-ओज से
जगे महेश देख देव नाद हर्ष से किये
जगत हिताय कामदेव देह त्याग कर दिये

अमर कथा अजर कथा कथा अजेय पात्र की
प्रकोप, दाह, कामना, महा परोपकार की
कथा विछोह, रोष, अम्बरीश के प्रताप की
हिताय सृष्टि, कामदेव के अपूर्व त्याग की