भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अब भी घुटनों के बल चलता / प्रताप नारायण सिंह" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप नारायण सिंह |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 30: पंक्ति 30:
 
धीर और गंभीर सभी  
 
धीर और गंभीर सभी  
 
नेपथ्य पकड़ रह जाते  
 
नेपथ्य पकड़ रह जाते  
हँसा सकेंवे जोकर ही बस
+
हँसा सकें वे जोकर ही बस
 
इसके मन को भाते  
 
इसके मन को भाते  
  

02:04, 7 नवम्बर 2019 के समय का अवतरण

अब भी घुटनों के बल चलता
बीते सत्तर साल
बड़ा नहीं होता यह बच्चा
अच्छा बाकी हाल

डाँट डपटकर पहले इसको
हँसते हुए रुलाते
फिर पकड़ाकर एक झुनझुना
रोता मन बहलाते

बेचारेपन में इसने है
लिया स्वयं को ढाल

मायावी आकर्षण में बिंध
सीढ़ी चढ़ता जाता
चुभ जाता तकुआ उँगली में
यह मूर्छित हो जाता

समझ नहीं किंचित पाता
बूढ़ी परियों की चाल

धीर और गंभीर सभी
नेपथ्य पकड़ रह जाते
हँसा सकें वे जोकर ही बस
इसके मन को भाते

बापू ! झुककर देखो
कैसा लोकतंत्र बेहाल