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जीवन की अमृत बेला में
क्यूं न स्वर्णिम सा भोर लिखा...?
थे मन उपवन शतदल सुगंध
क्यूं न भ्रमर-गुंज अतिशोर मिला...?
तृप्ति की मृदुल सरोवर में नित
दिप्त कँवलदल क्यूं न खिले...?
फिर स्वतः श्वेत हंसा जल से
मुँह मोती भर क्यूं न निकले...?
था विह्वल जीवन गरल बना
कर मंथन अमृत क्यूं न मिला...
जिज्ञासु मन की ज्ञान पिपासा
क्षुब्त हुई हल न निकला...
व्यथित पथिक, पर लक्ष्य अटल
थे मार्ग कठिन, संग धैर्य चला
कई दुर्गम पथ थे जीवन में, पर
सोच कभी क्या पग फिसला...?
संकल्प सुनिश्चित थे लेकिन
निज आत्मबल ही निर्बल निकला
जब ज्ञान चक्षु से धुंध हटा
’ज्योतिर्मय‘ मार्ग प्रशस्त मिला...