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पौधा पत्ती-पत्ती फैलता | पौधा पत्ती-पत्ती फैलता | ||
बच जाता है बीज-भर, | बच जाता है बीज-भर, | ||
और अचरज में फैली आँखें | और अचरज में फैली आँखें | ||
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छूट रही है पकड़ से | छूट रही है पकड़ से | ||
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किसी कालका-मेल से धड़धड़ाकर | किसी कालका-मेल से धड़धड़ाकर | ||
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+ | बिल्कुल अवाक खड़े रहते हैं | ||
+ | गन्तव्य ! | ||
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15:43, 8 फ़रवरी 2020 के समय का अवतरण
धीरे-धीरे जगहें छूट रही हैं,
बढ़ना सिमट आना है वापस — अपने भीतर !
पौधा पत्ती-पत्ती फैलता
बच जाता है बीज-भर,
और अचरज में फैली आँखें
बचती हैं, बस, बून्द-भर !
छूट रही है पकड़ से
अभिव्यक्ति भी धीरे-धीरे !
किसी कालका-मेल से धड़धड़ाकर
सामने से जाते हैं शब्द निकल !
एक पैर हवा में उठाए,
गठरी ताने
बिल्कुल अवाक खड़े रहते हैं
गन्तव्य !