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"दिन-रात ढूँढता तुझको मन / राहुल शिवाय" के अवतरणों में अंतर

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सुधियाँ बनकर मन पर छातीं,  
मेरे मन को विह्वल करके
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मेरे मन को विह्वल करके
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यह नयनों तक हैं जातीं।
तब दर्द, आह, तन्हाई में
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छाने लगते नयनों पर घन l
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तब दर्द, आह, तन्हाई में
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मेरे मन उपजा द्वन्द्व-दहन l
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कागज़ सारा रँग जाता है।
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ये कविताएँ ही करती हैं
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जीवन का कम एकाकीपन।
 
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15:58, 18 फ़रवरी 2020 के समय का अवतरण

दिन-रात ढूँढता तुझको मन।

बीती जीवन की घटनाएँ
सुधियाँ बनकर मन पर छातीं,
मेरे मन को विह्वल करके
यह नयनों तक हैं आ जातीं।

तब दर्द, आह, तन्हाई में
छाने लगते नयनों पर घन।

जैसे तू मुझे बुलाती थी
स्वर वही गूँजते कानों में,
फिर से जग जाते हैं जैसे
नव प्राण हृदय-अरमानों में।

फिर मुझे जलाने लगता है
मेरे मन उपजा द्वन्द्व-दहन।

जब बार - बार चिल्लाता हूँ
तब कंठ करुण स्वर गाता है,
मेरे पीड़ामय शब्दों से
कागज़ सारा रँग जाता है।

ये कविताएँ ही करती हैं
जीवन का कम एकाकीपन।