"उस ज़ुल्फ़ की याद जब आने लगी / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर
DeepakAgrawal (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी }} <poem> उस ज़ुल्फ़ की याद जब आने ...) |
|||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी | |रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatGhazal}} | ||
<poem> | <poem> | ||
पंक्ति 8: | पंक्ति 9: | ||
इक नागन-सी लहराने लगी | इक नागन-सी लहराने लगी | ||
− | जब ज़िक्र तेरा महफ़िल में छिड़ा क्यों आँख तेरी शरमाने | + | जब ज़िक्र तेरा महफ़िल में छिड़ा |
− | + | क्यों आँख तेरी शरमाने लगी | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | क्या़ मौजे-सबा थी मेरी नज़र | |
− | + | क्यों ज़ुल्फ़ तेरी बल खाने लगी | |
+ | महफ़िल में तेरी एक-एक अदा | ||
+ | कुछ साग़र-सी छलकाने लगी | ||
− | + | या रब यॉ चल गयी कैसी हवा | |
+ | क्यों दिल की कली मुरझाने लगी | ||
+ | |||
+ | शामे-वादा कुछ रात गये | ||
+ | तारों को तेरी याद आने लगी | ||
+ | |||
+ | साज़ों ने आँखे झपकायीं | ||
+ | नग़्मों को मेरे नींद आने लगी | ||
+ | |||
+ | जब राहे-ज़िन्दगी काट चुके | ||
+ | हर मंज़िल की याद आने लगी | ||
+ | |||
+ | क्या उन जु़ल्फ़ों को देख लिया | ||
+ | क्यों मौजे-सबा थर्राने लगी | ||
+ | |||
+ | तारे टूटे या आँख कोई | ||
+ | अश्कों से गुहर बरसाने लगी | ||
+ | |||
+ | तहज़ीब उड़ी है धुआँ बन कर | ||
+ | सदियों की सई ठिकाने लगी | ||
+ | |||
+ | कूचा-कूचा रफ़्ता-रफ़्ता | ||
+ | वो चाल क़यामत ढाने लगी | ||
+ | |||
+ | क्या बात हुई ये आँख तेरी | ||
+ | क्यों लाखों कसमें खाने लगी | ||
+ | |||
+ | अब मेरी निगाहे-शौक़ तेरे | ||
+ | रुख़सारों के फूल खिलाने लगी | ||
+ | |||
+ | फिर रात गये बज़्मे-अंजुम | ||
+ | रूदाद तेरी दोहराने लगी | ||
+ | |||
+ | फिर याद तेरी हर सीने के | ||
+ | गुलज़ारों को महकाने लगी | ||
+ | |||
+ | बेगोरो-कफ़न जंगल में ये लाश | ||
+ | दीवाने की ख़ाक उड़ाने लगी | ||
+ | |||
+ | वो सुब्ह की देवी ज़ेरे शफ़क़ | ||
+ | घूँघट-सी ज़रा सरकाने लगी | ||
+ | |||
+ | उस वक्त 'फ़िराक' हुई यॅ ग़ज़ल | ||
+ | जब तारों को नींद आने लगी | ||
</poem> | </poem> |
22:33, 3 मार्च 2020 का अवतरण
उस ज़ुल्फ़ की याद जब आने लगी
इक नागन-सी लहराने लगी
जब ज़िक्र तेरा महफ़िल में छिड़ा
क्यों आँख तेरी शरमाने लगी
क्या़ मौजे-सबा थी मेरी नज़र
क्यों ज़ुल्फ़ तेरी बल खाने लगी
महफ़िल में तेरी एक-एक अदा
कुछ साग़र-सी छलकाने लगी
या रब यॉ चल गयी कैसी हवा
क्यों दिल की कली मुरझाने लगी
शामे-वादा कुछ रात गये
तारों को तेरी याद आने लगी
साज़ों ने आँखे झपकायीं
नग़्मों को मेरे नींद आने लगी
जब राहे-ज़िन्दगी काट चुके
हर मंज़िल की याद आने लगी
क्या उन जु़ल्फ़ों को देख लिया
क्यों मौजे-सबा थर्राने लगी
तारे टूटे या आँख कोई
अश्कों से गुहर बरसाने लगी
तहज़ीब उड़ी है धुआँ बन कर
सदियों की सई ठिकाने लगी
कूचा-कूचा रफ़्ता-रफ़्ता
वो चाल क़यामत ढाने लगी
क्या बात हुई ये आँख तेरी
क्यों लाखों कसमें खाने लगी
अब मेरी निगाहे-शौक़ तेरे
रुख़सारों के फूल खिलाने लगी
फिर रात गये बज़्मे-अंजुम
रूदाद तेरी दोहराने लगी
फिर याद तेरी हर सीने के
गुलज़ारों को महकाने लगी
बेगोरो-कफ़न जंगल में ये लाश
दीवाने की ख़ाक उड़ाने लगी
वो सुब्ह की देवी ज़ेरे शफ़क़
घूँघट-सी ज़रा सरकाने लगी
उस वक्त 'फ़िराक' हुई यॅ ग़ज़ल
जब तारों को नींद आने लगी