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आंच / संतोष श्रीवास्तव

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मौसम गुजरते रहे
बिरवे में बर्दाश्त की कोंपलें
लहलहाई लहलहाईं
पीड़ा के फूल सुलगे
रंगों की कांपती खामोशी लिए
तितलियाँ मंडराई मंडराईं
पतझड़ में सब कुछ
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