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ख़तरे / वेणु गोपाल

112 bytes added, 11:30, 6 सितम्बर 2008
{{KKRachna
|रचनाकार=वेणु गोपाल
|संग्रह=हवाएँ चुप नहीं रहतीं / वेणु गोपाल
}}
<poem>
ख़तरे पारदर्शी होते हैं।
 
ख़ूबसूरत।
 
अपने पार भविष्य दिखाते हुए।
 जैसे छोटे से गुदाज गुदाज़ बदन वाली बच्ची 
किसी जंगली जानवर का मुखौटा लगाए
 
धम्म से आ कूदे हमारे आगे
 
और हम डरें नहीं। बल्कि देख लें
 
उसके बचपन के पार
 
एक जवान खुशी
 
और गोद में उठा लें उसे।
 
ऐसे ही कुछ होते हैं ख़तरे।
 
अगर डरें तो ख़तरे और अगर
 
नहीं तो भविष्य दिखाते
रंगीन पारदर्शी शीशे के टुकड़े।
रंगीन पारदर्शी शीशे के टुकड़े।(रचनाकाल :24.10.1972)
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