भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे साथ / वेणु गोपाल

20 bytes added, 19:40, 6 सितम्बर 2008
सतह से मैंने सिर ऊपर उठाया
 
तो ख़ामोशी किस कदर हँस रही है!
 
मै बस के पायदान पर लटक के
 
यहाँ से कहाँ जा रहा हूँ?
रविशंकर के सितार को
 
क्या कुछ और बुलंद नहीं हो जाना चाहिए था
 
लोरी सुनाते वक़्त?
 
तब
 
मैं
 
आकाश का
 
नीलापन तो नहीं हो जाता
 
और
 
स्टेज पर
 
अंधेरा तो नहीं छा जाता
 
खलनायक के आते ही।
 
मेरा
 
घर ही था
 
जो
 
रहा
 
मेरे साथ
 
ऎसे में।
 
(रचनाकाल : 04.08.1971)
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,726
edits