"ऋतुगीत / सीमा आभास" के अवतरणों में अंतर
Sirjanbindu (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सीमा आभास |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavi...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
Sirjanbindu (चर्चा | योगदान) छो (Sirjanbindu ने ऋतुको गीत / सीमा आभास पृष्ठ ऋतुगीत / सीमा आभास पर स्थानांतरित किया) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
{{KKCatNepaliRachna}} | {{KKCatNepaliRachna}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | + | ||
− | + | घँगारुको लौरो टेकेर | |
− | + | कोसीकिनारमा उभिएकी हजुरआमा | |
− | + | उघाएर अँजुलीभरि पानी | |
− | फेरिएनन् यी रुखका पातहरु | + | भन्छिन्– |
− | + | फेरिएनन् यी रुखका पातहरु | |
− | चरा ब्यूँझनुअघि हराएकाहरु | + | सङ्लिएन सप्तकोसी |
− | + | भेटिएनन् चरा ब्यूँझनुअघि ओछ्यानबाटै हराएकाहरु । | |
बाबै ! | बाबै ! | ||
− | आस्थाको तोरण | + | मक्किएको डोरीझैँ चुँडियो आस्थाको तोरण |
− | + | चैते हुन्डरीले झैँ भत्कायो विश्वासको छानो | |
− | फूलको | + | माहुरी आइपुग्नु अगावै सुक्यो फूलको रस |
− | + | साँझको घामसँग गएका नातिनातिना फर्किएनन् आजसम्म । | |
− | साँझको घामसँग गएका | + | |
− | नातिनातिना फर्किएनन् | + | |
− | लामो सास | + | तान्दै लामो सास |
+ | भन्छिन्– | ||
उफ ! | उफ ! | ||
− | ताराका लामसँगै | + | ताराका लामसँगै पल्टिए इतिहासका पाना |
− | इतिहासका पाना फेरिए | + | फेरिए लोककथा, दन्त्यकथा |
− | लोककथा दन्त्यकथा | + | अहँ ! फेरिएनन् |
− | + | आँगनकै ऋतुगीतहरु । | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | सन्तान हराएको दलानमा बसेर | + | सन्तान हराएको दलानमा बसेर |
− | सुर्तीको लामो सर्को तान्दै | + | सुर्तीको लामो सर्को तान्दै भन्छिन्– |
− | + | सँघार लिप्ने रातोमाटामा छोराको रङ छ | |
− | छोराको रङ छ | + | तुलसीमठमा चढाउने पानीमा छोरीको रङ छ । |
− | तुलसीमठमा चढाउने पानीमा | + | |
− | छोरीको रङ छ | + | |
− | + | पूर्णचन्द्रमुनि उभिएर भन्छिन्– | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
बुझिराखेस् बाबै ! | बुझिराखेस् बाबै ! | ||
− | + | नफेरिन्जेल यो ऋतुगीत | |
− | + | रोइरहनेछन् फूल, चरा, झन्डा र माटो । | |
− | + | ||
− | + | छचल्किरहनेछ सप्तकोसी | |
− | + | सम्झिराखेस् बाबै ! | |
− | + | आँखामा छचल्किरहनेछ सप्तकोसी । | |
− | + | ||
− | + | ||
− | सम्झिराखेस् बाबै ! | + | |
− | आँखामा | + | |
</poem> | </poem> |
11:41, 28 अप्रैल 2020 के समय का अवतरण
घँगारुको लौरो टेकेर
कोसीकिनारमा उभिएकी हजुरआमा
उघाएर अँजुलीभरि पानी
भन्छिन्–
फेरिएनन् यी रुखका पातहरु
सङ्लिएन सप्तकोसी
भेटिएनन् चरा ब्यूँझनुअघि ओछ्यानबाटै हराएकाहरु ।
बाबै !
मक्किएको डोरीझैँ चुँडियो आस्थाको तोरण
चैते हुन्डरीले झैँ भत्कायो विश्वासको छानो
माहुरी आइपुग्नु अगावै सुक्यो फूलको रस
साँझको घामसँग गएका नातिनातिना फर्किएनन् आजसम्म ।
तान्दै लामो सास
भन्छिन्–
उफ !
ताराका लामसँगै पल्टिए इतिहासका पाना
फेरिए लोककथा, दन्त्यकथा
अहँ ! फेरिएनन्
आँगनकै ऋतुगीतहरु ।
सन्तान हराएको दलानमा बसेर
सुर्तीको लामो सर्को तान्दै भन्छिन्–
सँघार लिप्ने रातोमाटामा छोराको रङ छ
तुलसीमठमा चढाउने पानीमा छोरीको रङ छ ।
पूर्णचन्द्रमुनि उभिएर भन्छिन्–
बुझिराखेस् बाबै !
नफेरिन्जेल यो ऋतुगीत
रोइरहनेछन् फूल, चरा, झन्डा र माटो ।
छचल्किरहनेछ सप्तकोसी
सम्झिराखेस् बाबै !
आँखामा छचल्किरहनेछ सप्तकोसी ।