"‘इंफ़्लुएंजा से कोरोना तक / तहज़ीब हाफ़ी" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तहज़ीब हाफ़ी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 12: | पंक्ति 12: | ||
रौशनी और अन्धेरे की तफ़रीक़ में कितने लोगों ने आँखें गँवा दीं | रौशनी और अन्धेरे की तफ़रीक़ में कितने लोगों ने आँखें गँवा दीं | ||
कितनी सदियाँ सफ़र में गुज़ारीं मगर आज फिर | कितनी सदियाँ सफ़र में गुज़ारीं मगर आज फिर | ||
− | उस जगह हैं जहाँ से हमें अपनी माओं ने रुख़्सत किया | + | उस जगह हैं जहाँ से हमें अपनी माओं ने रुख़्सत किया था |
+ | अपने सबसे बड़े ख़्वाब को | ||
अपनी आँखों के आगे उजड़ते हुए देखने से बुरा कुछ नहीं है | अपनी आँखों के आगे उजड़ते हुए देखने से बुरा कुछ नहीं है | ||
00:27, 6 मई 2020 के समय का अवतरण
कितना अरसा लगा ना-उमीदी के परबत से पत्थर हटाते हुए
एक बिफ़री हुई लहर को राम करते हुए
ना-ख़ुदाओं में अब पीछे कितने बचे हैं
रौशनी और अन्धेरे की तफ़रीक़ में कितने लोगों ने आँखें गँवा दीं
कितनी सदियाँ सफ़र में गुज़ारीं मगर आज फिर
उस जगह हैं जहाँ से हमें अपनी माओं ने रुख़्सत किया था
अपने सबसे बड़े ख़्वाब को
अपनी आँखों के आगे उजड़ते हुए देखने से बुरा कुछ नहीं है
तेरी क़ुरबत में या तुझ से दूरी पे जितनी गुज़ारी
तेरी चूड़ियों की क़सम ज़िन्दगी दायरों के सिवा कुछ नहीं है
कुहनियों से हमें अपना मुँह ढाँप कर खाँसने को बड़ों ने कहा था
तो हम उनपे हँसते थे और सोचते थे
कि उन को टिशू-पेपरों की महक से एलर्जी है
लेकिन हमें ये पता ही नहीं था कि उन पे वो आफ़ात टूटी हैं
जिनका हमें इक सदी बाद फिर सामना है
वबा के दिनों में किसे होश रहता है
किस हाथ को छोड़ना है किसे थामना है
इक रियाज़ी<ref>गणित</ref> के उस्ताद ने अपने हाथों में परकार लेकर
ये दुनिया नहीं दायरा खींचना था
ख़ैर ! जो भी हुआ तुम भी पुरखों के नक़्श-ए-क़दम पर चलो
और अपनी हिफ़ाज़त करो
कुछ महीने तुम्हें अपने तस्मे नहीं बाँधने
इससे आगे तो तुम पे है
तुम अपनी मंज़िल पे पहुँचो या फिर रास्तों में रहो
इससे पहले कि तुम अपने महबूब को वेण्टीलेटर पे देखो
घरों में रहो !!