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| मुड़ आया । | | मुड़ आया । |
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− | {{KKGlobal}}
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− | {{KKRachna
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− | |रचनाकार=अजित कुमार
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− | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
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− | }}
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− | '''कलाकृति
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− | चित्रों में अंकित
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− | पथ,कानन,
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− | सरिताएं, सागर, भू, नभ, घन
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− | लिपि में बँधे हुए,
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− | शब्दों में वर्णित
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− | मैंने देखे ।
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− | मुझे दिखा, मानो
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− | नदियां यों तो बहती हैं
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− | मैदानों में, दूर घाटियों में,
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− | पर उनकी आत्मा रहतीहै
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− | कागज़ पर अंकित चित्रों में ।
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− | मुझे लगा, मानो
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− | दो क्षण रहनेवाली संध्या
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− | बेशक ‘थी’
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− | और कभी आगे ‘होगी’,
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− | किन्तु अमरता और मधुरिमा उसकी ?
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− | --बस कविताओं में ।
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− | : “दिवसावसान का समय
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− | मेघमय आसमान से उत्तर रही है
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− | संध्या-सुंन्दरी परी-सी… “
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− | इसीलिए वे हरे, लाल,नीले रंगों से
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− | चित्रफलक पर रँगे हुए
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− | वन,उत्पल, या आकाश
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− | मुझे विह्लल कर देते थे ।
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− | बन्धु । वे सरल-तरल-मंजुल शैली में कहे गए
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− | उपवन, निर्झर, वातास
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− | मुझे चंचल कर देते थे ।
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− | इन सबमें रम जाता था
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− | मैं ।
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− | इसीलिए तो
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− | जहाँ-जहाँ भी दीख पड़ी रचना—
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− | कृति, अनुकृति—
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− | वहाँ-वहाँ थम जाता था
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− | मैं ।
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− | {{KKGlobal}}
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− | {{KKRachna
| |
− | |रचनाकार=अजित कुमार
| |
− | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
| |
− | }}
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− | आत्मविस्मृति
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− |
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− | पर्वतश्रेणी ।
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− | शीत हवाएँ ।
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− | कोहरे-पाले,
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− | रूई के गाले-सी हिम
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− | से ढँका, मुँदा वह पर्वत-देश ।
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− | श्वेत श्रृंग—
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− | जिनको आकांक्षा छूती धर जलधर का वेश ।
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− |
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− | उन्हीं उच्च लक्ष्यों पर
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− | बढती हुई एक कोई छाया,
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− | ऊपर ही ऊपर को
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− | चढती हुई एक कोई काया ।
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− | --पर्वतआरोही की काया ।
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− |
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− | वह पर्वतआरोही ।
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− | मैं हूँ जो
| |
− | मैदान, नदी, टीले, कछार, घाटियाँ पारकर
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− | आया हूँ ।
| |
− | ऊँचे पर्वत की चोटी छूने को आया हूँ ।
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− | (:आर्टगैलरी में पर्वत का चित्र देखकर आया था,
| |
− | उस क्षण मेरे मन में ऐसा अद्भुत भाव समाया था ।)
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− |
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− | {{KKGlobal}}
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− | {{KKRachna
| |
− | |रचनाकार=अजित कुमार
| |
− | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
| |
− | }}
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− | प्रकृति
| |
− | उजड़ा, अन्तहीन पथ ।-
| |
− | जिसपर कोई कभी नहीं भटका था ।
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− | मैं जब उसपर चला,
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− | मुझे मालूम हुआ-
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− | कुशनों-क़ालीनों के फूलों पर चलना,
| |
− | गुलदानों में लगे गुलाबों से
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− | अपने मन को छलना ।
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− | होगा ।
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− | कुछ तो होगा ही ।
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− | पर उन सबसे यह भिन्न ।
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− | यही इस वन-पथ पर
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− | खोया-खोया रह,
| |
− | बिना किसी उद्देश्य भटकना ।
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− |
| |
− | हर नन्हे जंगली पुष्प पर,
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− | हर पंछी की विकल टेर पर
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− | काफ़ी-काफ़ी देर
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− | अटकना ।
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− |
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− | {{KKGlobal}}
| |
− | {{KKRachna
| |
− | |रचनाकार=अजित कुमार
| |
− | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
| |
− | }}
| |
− | पुनरावृत्तियाँ
| |
− | 1
| |
− | (रात के पिछले पहर में
| |
− | स्वप्न टूटा ।
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− | दीप की लौ आखिरी-सा
| |
− | उस समय था
| |
− | भोर का तारा टिमकता ।
| |
− | चाँद की टूटी लहर में
| |
− | तैरती-सी दिख गयीं अरुणाभ किरनें …)
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− | --बार-बार मैंने यह सोचा :
| |
− | चलो, आज से नयी ज़िन्दगी शुरू हुई ।
| |
− | एक लड़ाई लड़ी, खतम की
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− |
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− |
| |
− |
| |
− | आगे की मंज़िल, पहले की मंज़िल से
| |
− | है कुछ तो भिन्न, भिन्न, और शायद विच्छिन्न ।
| |
− | तबसे बीत गये कितने ही लम्बे-आड़े-तिरछे वर्ष ।
| |
− |
| |
− |
| |
− | लेकिन पाता हूं-
| |
− | अब भी हैं : वही, वही, वे ही संघर्ष ।
| |
− | जो पहले था, वही आज हैं-
| |
− | वही स्वप्न, वे ही आदर्श ।
| |
− | {{KKGlobal}}
| |
− | {{KKRachna
| |
− | |रचनाकार=अजित कुमार
| |
− | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
| |
− | }}
| |
− | 2
| |
− | (हाय । कैसी थी कहानी ।
| |
− | अश्रु के भीगे कणों से,
| |
− | प्यार के मीठे क्षणों से रची
| |
− | वह कैसी कहानी ।
| |
− | कौन जाने कब सुनी थी,
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− | कहाँ की थी, और किसकी ?
| |
− | किन्तु अब भी बची
| |
− | वह कैसी कहानी ?…)
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− |
| |
− | -कितनी बार किया यह निश्चय :
| |
− | अब किताब को पढकर रोना खत्म हुआ ।
| |
− | एक उम्र थी: नहीं रही ।
| |
− | अब किताब को पढकर सिर्फ़ विचारेंगे,
| |
− | बिसरा देंगे ज़्यादातर, थोड़ा-सा मन में धारेंगे ।
| |
− | लेकिन यह सब नहीं हुआ ।
| |
− | उसको ‘कृत्रिम’ कहा अगर,
| |
− | ‘यह’ ज़्यादा कृत्रिम जान पड़ा ।
| |
− | सहज बनूँ कैसे ?
| |
− | उधेड़बुन यही शुरु से थी :
| |
− | अब भी ।
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− |
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− |
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− | {{KKGlobal}}
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− | {{KKRachna
| |
− | |रचनाकार=अजित कुमार
| |
− | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
| |
− | }}
| |
− | 3
| |
− | (कितनी अकेली राह थी,
| |
− | कैसा अकेला साथ था ।
| |
− | बेहद थके, डगमग क़दम ।
| |
− | लेकिन
| |
− | कहाँ वह हाथ था—
| |
− | जो बढे आगे, थाम ले । …)
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− |
| |
− | --हुआ नहीं कोई भी अपना ।
| |
− | नहीं टूटता पर वह सपना ।
| |
− | बार-बार जो सोच रहे थे हम
| |
− | कि अकेले ही रह लेंगे ।
| |
− | चलो, अकेले ही रह लेंगे ।
| |
− |
| |
− | बार-बार वह झूठा निकला :
| |
− | एक न एक चाँद मुस्काया किया,
| |
− | ज्वार बनकर मैं उमड़ा ।
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− |
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− | {{KKGlobal}}
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− | {{KKRachna
| |
− | |रचनाकार=अजित कुमार
| |
− | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
| |
− | }}
| |
− | 4
| |
− | (राग का जादू हिरन पर छा गया ।
| |
− | वह कुलाँचें मारनेवाला
| |
− | खिंचा-सा आ गया…)
| |
− |
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− | --कई बार यह हुआ कि
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− | अब संगीत सुनेंगे कभी नहीं ।
| |
− | मोहक जो संगीत कहाता : मुझको
| |
− | सिर्फ़ उबाता है ।
| |
− | गहराई से खींच, धरातल पर मुझको
| |
− | ले आता है ।
| |
− | लेकिन जब भी, जब भी
| |
− | काँपे थरथर-थरथर तार,
| |
− | और उमड़ी-लहराई स्वर की करुणा-धार
| |
− | काँपने लगे होंठ हर बार,
| |
− | धड़कने लगे प्राण के तार ।
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− |
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− |
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| |
− | |रचनाकार=अजित कुमार
| |
− | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
| |
− | }}
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− | 5
| |
− | (एक घर था
| |
− | और उसके द्वार में ताला जड़ा था ।
| |
− | बन्द घर को कौन खोले ।
| |
− | स्तब्धता में कौन बोले । …)
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− |
| |
− | --ऊँचे शिखरों के प्रति मेरी वृहत कल्पना
| |
− | बार-बार रह गई सिर्फ़ टेढी-मेढी, सँकरी गलियों तक
| |
− | इनसे बाहर हटकर, उठकर
| |
− | किसी अपरिचित ऊँचाई तक जाने की
| |
− | जो साध बड़ी थी,
| |
− | उसके आगे एक अजब दीवार…
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| |
− | |रचनाकार=अजित कुमार
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− | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
| |
− | }}
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− |
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− | 1
| |
− | …एक बार का सोचा-समझा
| |
− | बार-बार क्यों सच लगता ?
| |
− | बीच-बीच में ‘झूठ’ समझकर भी
| |
− | क्यों उसमें मन रमता ।
| |
− | आज : ‘झूठ’, कल : ‘सच’ दिखनेवाली माया का अन्त कहाँ ?
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− |
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− | |रचनाकार=अजित कुमार
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− | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
| |
− | }}
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− |
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− | 2
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− | स्वप्न वहाँ हैं
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− | और यहाँ पर परिणति है ।
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− | कृत्रिम उधर
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− | और आवेगों की क्यों इधर अपरिमिति है ?
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− |
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− |
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| |
− | |रचनाकार=अजित कुमार
| |
− | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
| |
− | }}
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− | 3
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− | कौन कहाँ से आया
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− | इसका तो कुछ भी आभास नहीं ।
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− | एक मुझीमें इतना सब कुछ था
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− | यह भी विश्वास नहीं ।
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| |
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| |
− | |रचनाकार=अजित कुमार
| |
− | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
| |
− | }}
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− | 4
| |
− | क्यों दुहराया तुमने उसको
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− | कहो, उसे क्यों दुहराया ?
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− | भूल नहीं पाये क्यों इसको ?
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− | भूलो, अब तो भूलो सब ।
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− |
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− |
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− | {{KKGlobal}}
| |
− | {{KKRachna
| |
− | |रचनाकार=अजित कुमार
| |
− | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
| |
− | }}
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− | 5
| |
− | जो दीवारें थीं लोहे की,
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− | वे दीवारें हैं लोहे की,
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− | जैसी थीं वे, वैसी ही हैं ।
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− | -ऊँचे सिखर किन्तु अब उतने ऊँचे नहीं रहे ।
| |
− | पुनरावर्तन, प्रत्यावर्तन किसने नही सहा।
| |
− | लेकिन
| |
− | लौटे हुए व्यक्ति के लिये
| |
− | शिखर तक जाना
| |
− | उतना दुर्लभ नहीं रहा ।
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− |
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− | {{KKGlobal}}
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| |
− | |रचनाकार=अजित कुमार
| |
− | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
| |
− | }}
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− |
| |
− | आओ, हम फिर से जियें
| |
− |
| |
− | आओ, हम फिर से जियें ।
| |
− |
| |
− | बहता-बहता मेघखंड जो
| |
− | पहुँच गया है वहाँ क्षितिज तक
| |
− | लौटा लायें उसे,
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− | कहें :
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− | ‘ओ, फिर से बहो ।
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− | मन, मन्थर, मृदु गति से …
| |
− | शोभावाही मेघ, रसीले मेघ, दूत ।
| |
− | जो कथा कही थी, फिर से कहो ।‘
| |
− |
| |
− | और …
| |
− | अपलक, अविचल
| |
− | हम उसे निरखते रहें, पियें ।
| |
− |
| |
− | आओ, हम फिर से जियें ।
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− | 000
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| |
− | (प्रकाशन विषयक सूचना –वर्ष 1958, प्रकाशक –राजकमल,दिल्ली,पटना आदि, पृष्ठ-80,आकार डिमाई,मूल्य-तीन रुपये, कापीराइट,1958,अजितकुमार,युगमन्दिर, उन्नाव, वर्तमान पता- 166, वैशाली, पीतमपुरा, दिल्ली-110034, फ़ोन-27314369, मो0 9811225605)
| |