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"ग्रीनरूम / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर

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मुड़ आया ।
 
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|रचनाकार=अजित कुमार
 
|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
 
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'''कलाकृति
 
 
 
चित्रों में अंकित
 
 
पथ,कानन,
 
 
सरिताएं, सागर, भू, नभ, घन
 
 
लिपि में बँधे हुए,
 
 
शब्दों में वर्णित
 
 
मैंने देखे ।
 
 
मुझे दिखा, मानो
 
 
नदियां यों तो बहती हैं
 
 
मैदानों में, दूर घाटियों में,
 
 
पर उनकी आत्मा रहतीहै
 
 
कागज़ पर अंकित चित्रों में ।
 
 
मुझे लगा, मानो
 
 
दो क्षण रहनेवाली संध्या
 
 
बेशक ‘थी’
 
 
और कभी आगे ‘होगी’,
 
 
किन्तु अमरता और मधुरिमा उसकी ?
 
 
--बस कविताओं में ।
 
 
: “दिवसावसान का समय
 
 
मेघमय आसमान से उत्तर रही है
 
 
संध्या-सुंन्दरी परी-सी… “
 
 
इसीलिए वे हरे, लाल,नीले रंगों से
 
 
चित्रफलक पर रँगे हुए
 
 
वन,उत्पल, या आकाश
 
 
मुझे विह्लल कर देते थे ।
 
 
बन्धु । वे सरल-तरल-मंजुल शैली में कहे गए
 
 
उपवन, निर्झर, वातास
 
 
मुझे चंचल कर देते थे ।
 
 
 
इन सबमें रम जाता था
 
 
मैं ।
 
 
इसीलिए तो
 
 
जहाँ-जहाँ भी दीख पड़ी रचना—
 
 
कृति, अनुकृति—
 
 
वहाँ-वहाँ थम जाता था
 
 
मैं ।
 
 
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|रचनाकार=अजित कुमार
 
|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
 
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आत्मविस्मृति
 
 
पर्वतश्रेणी ।
 
शीत हवाएँ ।
 
कोहरे-पाले,
 
रूई के गाले-सी हिम
 
से ढँका, मुँदा वह पर्वत-देश ।
 
श्वेत श्रृंग—
 
जिनको आकांक्षा छूती धर जलधर का वेश ।
 
 
उन्हीं उच्च लक्ष्यों पर
 
बढती हुई एक कोई छाया,
 
ऊपर ही ऊपर को
 
चढती हुई एक कोई काया ।
 
--पर्वतआरोही की काया ।
 
 
वह पर्वतआरोही ।
 
मैं हूँ जो
 
मैदान, नदी, टीले, कछार, घाटियाँ पारकर
 
आया हूँ ।
 
ऊँचे पर्वत की चोटी छूने को आया हूँ ।
 
(:आर्टगैलरी में पर्वत का चित्र देखकर आया था,
 
उस क्षण मेरे मन में ऐसा अद्भुत भाव समाया था ।)
 
 
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|रचनाकार=अजित कुमार
 
|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
 
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प्रकृति
 
उजड़ा, अन्तहीन पथ ।-
 
जिसपर कोई कभी नहीं भटका था ।
 
मैं जब उसपर चला,
 
मुझे मालूम हुआ-
 
कुशनों-क़ालीनों के फूलों पर चलना,
 
गुलदानों में लगे गुलाबों से
 
अपने मन को छलना ।
 
होगा ।
 
कुछ तो होगा ही ।
 
पर उन सबसे यह भिन्न ।
 
यही इस वन-पथ पर
 
खोया-खोया रह,
 
बिना किसी उद्देश्य भटकना ।
 
 
हर नन्हे जंगली पुष्प पर,
 
हर पंछी की विकल टेर पर
 
काफ़ी-काफ़ी देर
 
अटकना ।
 
 
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|रचनाकार=अजित कुमार
 
|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
 
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पुनरावृत्तियाँ
 
1
 
(रात के पिछले पहर में
 
स्वप्न टूटा ।
 
दीप की लौ आखिरी-सा
 
उस समय था
 
भोर का तारा टिमकता ।
 
चाँद की टूटी लहर में
 
तैरती-सी दिख गयीं अरुणाभ किरनें …)
 
--बार-बार मैंने यह सोचा :
 
चलो, आज से नयी ज़िन्दगी शुरू हुई ।
 
    एक लड़ाई लड़ी, खतम की
 
 
 
 
आगे की मंज़िल, पहले की मंज़िल से
 
है कुछ तो भिन्न, भिन्न, और शायद विच्छिन्न ।
 
तबसे बीत गये कितने ही लम्बे-आड़े-तिरछे वर्ष ।
 
 
 
लेकिन पाता हूं-
 
अब भी हैं : वही, वही, वे ही संघर्ष ।
 
जो पहले था, वही आज हैं-
 
वही स्वप्न, वे ही आदर्श  ।
 
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|रचनाकार=अजित कुमार
 
|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
 
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2
 
(हाय । कैसी थी कहानी ।
 
अश्रु के भीगे कणों से,
 
प्यार के मीठे क्षणों से रची
 
वह कैसी कहानी ।
 
कौन जाने कब सुनी थी,
 
कहाँ की थी, और किसकी ?
 
किन्तु अब भी बची
 
वह कैसी कहानी ?…)
 
 
-कितनी बार किया यह निश्चय :
 
अब किताब को पढकर रोना खत्म हुआ ।
 
एक उम्र थी: नहीं रही ।
 
अब किताब को पढकर सिर्फ़ विचारेंगे,
 
बिसरा देंगे ज़्यादातर, थोड़ा-सा मन में धारेंगे ।
 
        लेकिन यह सब नहीं हुआ ।
 
        उसको ‘कृत्रिम’ कहा अगर,
 
        ‘यह’ ज़्यादा कृत्रिम जान पड़ा ।
 
          सहज बनूँ कैसे ?
 
          उधेड़बुन यही शुरु से थी :
 
          अब भी ।
 
 
 
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|रचनाकार=अजित कुमार
 
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3
 
(कितनी अकेली राह थी,
 
कैसा अकेला साथ था ।
 
बेहद थके, डगमग क़दम ।
 
लेकिन
 
कहाँ वह हाथ था—
 
जो बढे आगे, थाम ले । …)
 
 
--हुआ नहीं कोई भी अपना ।
 
नहीं टूटता पर वह सपना ।
 
बार-बार जो सोच रहे थे हम
 
कि अकेले ही रह लेंगे ।
 
चलो, अकेले ही रह लेंगे ।
 
 
बार-बार वह झूठा निकला :
 
एक न एक चाँद मुस्काया किया,
 
ज्वार बनकर मैं उमड़ा ।
 
 
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4
 
(राग का जादू हिरन पर छा गया ।
 
वह कुलाँचें मारनेवाला
 
खिंचा-सा आ गया…)
 
 
--कई बार यह हुआ कि
 
अब संगीत सुनेंगे कभी नहीं ।
 
मोहक जो संगीत कहाता : मुझको
 
  सिर्फ़ उबाता है ।
 
गहराई से खींच, धरातल पर मुझको
 
    ले आता है ।
 
    लेकिन जब भी, जब भी
 
    काँपे थरथर-थरथर तार,
 
    और उमड़ी-लहराई स्वर की करुणा-धार
 
काँपने लगे होंठ हर बार,
 
धड़कने लगे प्राण के तार ।
 
 
 
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5
 
(एक घर था
 
और उसके द्वार में ताला जड़ा था ।
 
बन्द घर को कौन खोले ।
 
स्तब्धता में कौन बोले । …)
 
 
--ऊँचे शिखरों के प्रति मेरी वृहत कल्पना
 
बार-बार रह गई सिर्फ़ टेढी-मेढी, सँकरी गलियों तक
 
    इनसे बाहर हटकर, उठकर
 
    किसी अपरिचित ऊँचाई तक जाने की
 
    जो साध बड़ी थी,
 
    उसके आगे एक अजब दीवार…
 
 
 
 
 
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1
 
…एक बार का सोचा-समझा
 
बार-बार क्यों सच लगता ?
 
बीच-बीच में ‘झूठ’ समझकर भी
 
क्यों उसमें मन रमता ।
 
आज : ‘झूठ’, कल : ‘सच’ दिखनेवाली माया का अन्त कहाँ ?
 
 
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2
 
स्वप्न वहाँ हैं
 
और यहाँ पर परिणति है ।
 
कृत्रिम उधर
 
और आवेगों की क्यों इधर अपरिमिति है ?
 
 
 
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3
 
कौन कहाँ से आया
 
इसका तो कुछ भी आभास नहीं ।
 
एक मुझीमें इतना सब कुछ था
 
यह भी विश्वास नहीं ।
 
 
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4
 
क्यों दुहराया तुमने उसको
 
कहो, उसे क्यों दुहराया ?
 
भूल नहीं पाये क्यों इसको ?
 
भूलो, अब तो भूलो सब ।
 
 
 
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5
 
जो दीवारें थीं लोहे की,
 
वे दीवारें हैं लोहे की,
 
जैसी थीं वे, वैसी ही हैं ।
 
-ऊँचे सिखर किन्तु अब उतने ऊँचे नहीं रहे ।
 
पुनरावर्तन, प्रत्यावर्तन किसने नही सहा।
 
लेकिन
 
लौटे हुए व्यक्ति के लिये
 
शिखर तक जाना
 
उतना दुर्लभ नहीं रहा ।
 
 
 
 
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|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
 
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आओ, हम फिर से जियें
 
 
आओ, हम फिर से जियें ।
 
 
बहता-बहता मेघखंड जो
 
पहुँच गया है वहाँ क्षितिज तक
 
लौटा  लायें उसे,
 
कहें :
 
‘ओ, फिर से बहो ।
 
मन, मन्थर, मृदु गति से …
 
शोभावाही मेघ, रसीले मेघ, दूत ।
 
जो कथा कही थी, फिर से कहो ।‘
 
 
और …
 
अपलक, अविचल
 
हम उसे निरखते रहें, पियें ।
 
 
आओ, हम फिर से जियें ।
 
 
        000
 
 
(प्रकाशन विषयक सूचना –वर्ष 1958, प्रकाशक –राजकमल,दिल्ली,पटना आदि, पृष्ठ-80,आकार डिमाई,मूल्य-तीन रुपये, कापीराइट,1958,अजितकुमार,युगमन्दिर, उन्नाव, वर्तमान पता- 166, वैशाली, पीतमपुरा, दिल्ली-110034, फ़ोन-27314369, मो0 9811225605)
 

20:08, 9 सितम्बर 2008 का अवतरण

जहाँ पर इन्द्रधनुष पहले-पहले बनते,

जहाँ पर मेघ परस्पर परामर्श करते कि

कैसा रूप धरें जो त्रिभुवन-मोहन हो ।

जहाँ से दृश्य नए खुलते—

वहाँ तक जाकर मैं रूक गया ।


याद अब भी मुझको वह रात,

बहुत दिन पहले की यह बात…

एक नाटक होते देखा :
और अभिनय की हर रेखा
मुझे रँगती-सी चली गई ।
बहुत उद्विग्न हुआ मैं, और,
--चलूँ अब किसी दूसरे ठौर—
सोचकर, उठा और चल दिया ।


अचानक वहीं पार्श्व में दिखा

द्वार, जिसपर ‘सज्जागृह’ लिखा ।

झाँककर मैं भी देखूँ इसे ?-

ज्ञात था किसे ।

कि

श्री की होगी ऐसी राह ।

रँगे जाते थे चेहरे ।

आह ।

जान मैं गया,

जान मैं गया कि:

मुद्रा, अंग-भंगिमा,

गति, लय, भावावेग ,

हास उन्मुक्त, और उद्वेग—

सभी की रचना का यह केन्द्र ।

सभी ‘अभिनय’ का पहला स्रोत ।


तभी से कुछ ऐसा हो गया

कि हर सज्जागृह के

दरवाज़े से ही

मैं वापस आ गया ।


जहां पर रंग और आकार पुष्प पाते,

जहां से स्वप्न सुहाने पलकों पर आते,

वहां तक जाकर मैं थम गया ।


नहीं सोचा- ‘रहस्य को करूं अनावृत, नग्न ।‘

नहीं चाहा- ‘सुन्दरता को यों कर दूं भग्न ।‘

और

इस उलझी-सुलझी यात्रा का

था जहां आखिरी ठौर :

वहां तक पहुंचा-

मुड़ आया ।