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|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
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हठ कर बैठा चाँद एक बार की बातदिन, चंद्रमा माता से यह बोला अपनी माँ से"कुर्ता एक नाप का मेरी, माँ मुझको सिलवा देनंगे तन बारहों मास मैं यूँ ही घूमा करतागर्मी, वर्षा, जाड़ा हरदम बड़े कष्ट से सहता."‘‘सिलवा दो माँ हँसकर बोली, सिर पर रख हाथ,चूमकर मुखड़ामुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।
"बेटा खूब समझती सनसन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ मैं तेरा सारा दुखड़ा,लेकिन तू ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ। आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’ बच्चे की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने। जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,एक नाप में कभी नहीं रहता हैतुझको देखा करती हूँ। पूरा कभीएक अंगुल भर चौड़ा, कभी आधाएक फुट मोटा, बिलकुल न कभी दिखता बड़ा किसी दिन हो जाता है", और किसी दिन छोटा।"आहा माँ ! फिर तो हर घटता-बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,नहीं किसी की मेरी भी आँखों को दिखलाई पड़ता है। अब तू ही ये बता, नाप लिवा दे तेरा किस रोज़ लिवाएँ,सी दें एक नहीं पूरे पंद्रह तू कुर्ते मुझे सिला दे."झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?’’ ''-साभार: नंदन, दिसंबर, 1996, 10''
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