"फूल और कली / उदयप्रताप सिंह" के अवतरणों में अंतर
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फूल से बोली कली क्यों व्यस्त मुरझाने में है  | फूल से बोली कली क्यों व्यस्त मुरझाने में है  | ||
| − | + | फ़ायदा क्या गंध औ मकरंद बिखराने में है  | |
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तूने  अपनी उम्र क्यों वातावरण में घोल दी  | तूने  अपनी उम्र क्यों वातावरण में घोल दी  | ||
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अपनी मनमोहक पंखुरियों की छटा क्यों खोल दी  | अपनी मनमोहक पंखुरियों की छटा क्यों खोल दी  | ||
| − | + | तू स्वयं को बाँटता है जिस घड़ी से तू खिला  | |
| − | + | ||
| − | तू स्वयं को   | + | |
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किन्तु इस उपकार के  बदले में तुझको  क्या मिला  | किन्तु इस उपकार के  बदले में तुझको  क्या मिला  | ||
| − | + | मुझको देखो मेरी सब ख़ुशबू मुझ ही में बंद है  | |
| − | मुझको देखो मेरी सब   | + | |
| − | + | ||
मेरी सुन्दरता है अक्षय अनछुआ मकरंद है  | मेरी सुन्दरता है अक्षय अनछुआ मकरंद है  | ||
| − | + | मैं किसी लोलुप भ्रमर के जाल में फँसती नहीं  | |
| − | + | मैं किसी को देख कर रोती नहीं हँसती नहीं  | |
| − | मैं किसी लोलुप भ्रमर के जाल में   | + | |
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| − | मैं किसी को देख कर रोती नहीं   | + | |
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मेरी छवि संचित जलाशय है सहज झरना नहीं  | मेरी छवि संचित जलाशय है सहज झरना नहीं  | ||
| − | |||
मुझको जीवित रहना है तेरी तरह मरना नहीं  | मुझको जीवित रहना है तेरी तरह मरना नहीं  | ||
| − | + | मैं पली काँटो में जब थी दुनिया तब सोती रही  | |
| − | + | ||
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| − | + | ||
मेरी ही क्या ये किसी की भी कभी होती नहीं  | मेरी ही क्या ये किसी की भी कभी होती नहीं  | ||
| − | + | ऐसी दुनिया के लिए सौरभ लुटाऊँ किसलिए  | |
| − | ऐसी दुनिया के लिए सौरभ   | + | स्वार्थी समुदाय का मेला लगाऊँ किसलिए  | 
| − | + | ||
| − | स्वार्थी समुदाय का मेला   | + | |
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| − | + | ||
फूल उस नादान की वाचालता पर चुप रहा  | फूल उस नादान की वाचालता पर चुप रहा  | ||
| − | |||
फिर स्वयं को देखकर भोली कली से ये कहा  | फिर स्वयं को देखकर भोली कली से ये कहा  | ||
| − | + | ज़िंदगी सिद्धांत की सीमाओं में बँटती नहीं  | |
| − | + | ||
| − | + | ||
ये वो पूंजी है जो व्यय से बढ़ती है घटती नहीं  | ये वो पूंजी है जो व्यय से बढ़ती है घटती नहीं  | ||
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| − | |||
चार दिन की ज़िन्दगी ख़ुद को जीए तो क्या जिए  | चार दिन की ज़िन्दगी ख़ुद को जीए तो क्या जिए  | ||
| − | |||
बात तो तब है कि जब मर जाएँ औरों के लिए  | बात तो तब है कि जब मर जाएँ औरों के लिए  | ||
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प्यार के व्यापार का क्रम अन्यथा होता नहीं  | प्यार के व्यापार का क्रम अन्यथा होता नहीं  | ||
| − | |||
वह कभी पता नहीं है जो कभी खोता नहीं  | वह कभी पता नहीं है जो कभी खोता नहीं  | ||
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आराम की पूछो अगर तो मृत्यु में आराम है  | आराम की पूछो अगर तो मृत्यु में आराम है  | ||
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ज़िन्दगी कठिनाइयों से जूझने का नाम है  | ज़िन्दगी कठिनाइयों से जूझने का नाम है  | ||
| − | |||
स्वयं की उपयोगिता ही व्यक्ति का सम्मान है  | स्वयं की उपयोगिता ही व्यक्ति का सम्मान है  | ||
| − | |||
व्यक्ति की अंतर्मुखी गति दम्भमय अज्ञान है  | व्यक्ति की अंतर्मुखी गति दम्भमय अज्ञान है  | ||
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| − | |||
ये तुम्हारी आत्म केन्द्रित गंध भी क्या गंध है  | ये तुम्हारी आत्म केन्द्रित गंध भी क्या गंध है  | ||
| − | |||
ज़िन्दगी तो दान का और प्राप्ति का अनुबंध है  | ज़िन्दगी तो दान का और प्राप्ति का अनुबंध है  | ||
| − | |||
जितना तुम दोगे समय उतना संजोयेगा  | जितना तुम दोगे समय उतना संजोयेगा  | ||
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तुम्हें पूरे उपवन में पवन कंधो पे ढोएगा तुम्हें  | तुम्हें पूरे उपवन में पवन कंधो पे ढोएगा तुम्हें  | ||
| − | + | चाँदनी अपने दुशाले में सुलायेगी तुम्हें  | |
| − | + | ||
| − | + | ||
| − | + | ||
ओस मुक्ता हार में अपने पिन्हायेगी तुम्हें  | ओस मुक्ता हार में अपने पिन्हायेगी तुम्हें  | ||
| − | |||
धूप अपनी अँगुलियों से गुदगुदाएगी तुम्हें  | धूप अपनी अँगुलियों से गुदगुदाएगी तुम्हें  | ||
| − | |||
तितलियों की रेशमी सिहरन जगाएगी तुम्हें  | तितलियों की रेशमी सिहरन जगाएगी तुम्हें  | ||
| − | |||
| − | |||
टूटे मन वाले कलेजे से लगायेंगे तुम्हें  | टूटे मन वाले कलेजे से लगायेंगे तुम्हें  | ||
| − | + | मंदिरों के देवता सिर पर चढ़ाएँगे तुम्हें  | |
| − | मंदिरों के देवता सिर पर   | + | |
| − | + | ||
गंध उपवन की विरासत है इसे संचित न कर  | गंध उपवन की विरासत है इसे संचित न कर  | ||
| − | + | बाँटने के सुख से अपने आप को वंचित न कर  | |
| − | + | ||
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यदि संजोने का मज़ा कुछ है तो बिखराने में है  | यदि संजोने का मज़ा कुछ है तो बिखराने में है  | ||
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ज़िन्दगी की सार्थकता बीज बन जाने में है  | ज़िन्दगी की सार्थकता बीज बन जाने में है  | ||
| − | |||
दूसरे दिन मैंने देखा वो कली खिलने लगी  | दूसरे दिन मैंने देखा वो कली खिलने लगी  | ||
| − | |||
शक्ल सूरत में बहुत कुछ फूल से मिलने लगी   | शक्ल सूरत में बहुत कुछ फूल से मिलने लगी   | ||
| + | </poem>  | ||
12:10, 5 जून 2020 के समय का अवतरण
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
फूल से बोली कली क्यों व्यस्त मुरझाने में है
फ़ायदा क्या गंध औ मकरंद बिखराने में है
तूने  अपनी उम्र क्यों वातावरण में घोल दी
अपनी मनमोहक पंखुरियों की छटा क्यों खोल दी
तू स्वयं को बाँटता है जिस घड़ी से तू खिला
किन्तु इस उपकार के  बदले में तुझको  क्या मिला
मुझको देखो मेरी सब ख़ुशबू मुझ ही में बंद है
मेरी सुन्दरता है अक्षय अनछुआ मकरंद है
मैं किसी लोलुप भ्रमर के जाल में फँसती नहीं
मैं किसी को देख कर रोती नहीं हँसती नहीं
मेरी छवि संचित जलाशय है सहज झरना नहीं
मुझको जीवित रहना है तेरी तरह मरना नहीं
मैं पली काँटो में जब थी दुनिया तब सोती रही
मेरी ही क्या ये किसी की भी कभी होती नहीं
ऐसी दुनिया के लिए सौरभ लुटाऊँ किसलिए
स्वार्थी समुदाय का मेला लगाऊँ किसलिए
फूल उस नादान की वाचालता पर चुप रहा
फिर स्वयं को देखकर भोली कली से ये कहा
ज़िंदगी सिद्धांत की सीमाओं में बँटती नहीं
ये वो पूंजी है जो व्यय से बढ़ती है घटती नहीं
चार दिन की ज़िन्दगी ख़ुद को जीए तो क्या जिए
बात तो तब है कि जब मर जाएँ औरों के लिए
प्यार के व्यापार का क्रम अन्यथा होता नहीं
वह कभी पता नहीं है जो कभी खोता नहीं
आराम की पूछो अगर तो मृत्यु में आराम है
ज़िन्दगी कठिनाइयों से जूझने का नाम है
स्वयं की उपयोगिता ही व्यक्ति का सम्मान है
व्यक्ति की अंतर्मुखी गति दम्भमय अज्ञान है
ये तुम्हारी आत्म केन्द्रित गंध भी क्या गंध है
ज़िन्दगी तो दान का और प्राप्ति का अनुबंध है
जितना तुम दोगे समय उतना संजोयेगा
तुम्हें पूरे उपवन में पवन कंधो पे ढोएगा तुम्हें
चाँदनी अपने दुशाले में सुलायेगी तुम्हें
ओस मुक्ता हार में अपने पिन्हायेगी तुम्हें
धूप अपनी अँगुलियों से गुदगुदाएगी तुम्हें
तितलियों की रेशमी सिहरन जगाएगी तुम्हें
टूटे मन वाले कलेजे से लगायेंगे तुम्हें
मंदिरों के देवता सिर पर चढ़ाएँगे तुम्हें
गंध उपवन की विरासत है इसे संचित न कर
बाँटने के सुख से अपने आप को वंचित न कर
यदि संजोने का मज़ा कुछ है तो बिखराने में है
ज़िन्दगी की सार्थकता बीज बन जाने में है
दूसरे दिन मैंने देखा वो कली खिलने लगी
शक्ल सूरत में बहुत कुछ फूल से मिलने लगी 
	
	