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"खुद को खुद ही से छलता है / सुभाष पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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11:05, 15 जून 2020 के समय का अवतरण
दुरभिसंधि में उलझा मन जब बाहर कभी निकलता है।
खुद को खुद ही से छलता है।
रत्नजटित उष्णीष माथ धर बन महीप भर अहंकार।
कभी वेश धर याचक-सा फिर रोता फिरता जार-जार।
दाता परम महान कभी फेंके टुकड़ों पर पलता है।
उपवन की गंधों में डूबा नवपुष्पों का संगी बन।
धूल-कींच से भरी राह पर चल पड़ता बहुरंगी बन।
शांत सरोवर मौन कभी
नदियों-सी तरल विकलता है।
करवट, तड़प, बेकली में तो सभी समर्पण, घातें हैं।
खुद से बात, उनींदी पलकें ऐसे गुजरी रातें हैं।
दिव्यलोक में मन विचरे फिर सुर 'संगीत' निकलता है।