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|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
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हर ज़िन्दगी कहीं न कहीं
दूसरी ज़िन्दगी से टकराती है।
हर ज़िन्दगी किसी न किसी
ज़िन्दगी से मिल कर एक हो जाती है ।
ज़िन्दगी ज़िन्दगी से
इतनी जगहों पर मिलती है
कि हम कुछ समझ नहीं पाते
और कह बैठते हैं यह भारी झमेला है।
संसार संसार नहीं,
बेवकूफ़ियों का मेला है।
हर ज़िन्दगी कहीं न कहीं<br>एक सूत हैदूसरी ज़िन्दगी से टकराती और दुनिया उलझे सूतों का जाल है।<br>हर ज़िन्दगी किसी न किसी<br>इस उलझन का सुलझानाज़िन्दगी से मिल कर एक हो जाती है ।<br><br>हमारे लिये मुहाल है।