भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हम ले के अपना माल जो मेले में आ गए / हस्तीमल 'हस्ती'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हस्तीमल 'हस्ती' |संग्रह=कुछ और तरह से भी / हस्तीम…)
 
 
पंक्ति 9: पंक्ति 9:
 
सारे दुकानदार दुकानें बढ़ा गए
 
सारे दुकानदार दुकानें बढ़ा गए
  
बस्ती के क़त्ले आम पे निकली न आह भी  
+
बस्ती के क़त्ले-आम पे निकली न आह भी  
 
ख़ुद को लगी जो चोट तो दरिया बहा गए
 
ख़ुद को लगी जो चोट तो दरिया बहा गए
  
पंक्ति 19: पंक्ति 19:
  
 
दोनों ही एक जैसे हैं कुटिया हो या महल  
 
दोनों ही एक जैसे हैं कुटिया हो या महल  
दीवारो दर के मानी समझ में जो आ गए
+
दीवारो-दर के मानी समझ में जो आ गए
  
नज़रें हटा ली अपनी तो ये मोजजा हुआ
+
नज़रें हटा ली अपनी तो ये मोजिज़ा हुआ
 
जल्वे सिमट के ख़ुद मेरी आँखों मे आ गए
 
जल्वे सिमट के ख़ुद मेरी आँखों मे आ गए
  

14:47, 17 जून 2020 के समय का अवतरण

हम ले के अपना माल जो मेले में आ गए
सारे दुकानदार दुकानें बढ़ा गए

बस्ती के क़त्ले-आम पे निकली न आह भी
ख़ुद को लगी जो चोट तो दरिया बहा गए

दुनिया की शोहरतें हैं उन्हीं के नसीब में
अंदाज़ जिनको बात बनाने के आ गए

फ़नकार तो ज़माने मे गुमनाम ही रहे
ताजिर थे जो हुनर के ज़माने पे छा गए

दोनों ही एक जैसे हैं कुटिया हो या महल
दीवारो-दर के मानी समझ में जो आ गए

नज़रें हटा ली अपनी तो ये मोजिज़ा हुआ
जल्वे सिमट के ख़ुद मेरी आँखों मे आ गए

पंडित उलझ के रह गए पोथी के जाल में
क्या चीज़ है ये ज़िंदगी बच्चे बता गए