भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatGhazal}}
<poem>
किसी के पास में चेहरा नहीं है
किसी के पास आईना नहीं है
हमारा घर खुला रहता हमेशा
हमारे घर में दरवाजा नहीं है
चले आओ यहां बेख़ौफ़ होकर
यहां बिल्कुल भी अंधियारा नहीं है
मगर राजा वही है ध्यान रखना
भले अंधा है पर बहरा नहीं है
हमें कैसे ग़ज़ल सूझे बताओ?
हमारे घर में इक दाना नहीं है
मुकम्मल आदमी मैं बन न पाया
मुझे इसका भी पछतावा नहीं है
मगर कैसे यकीं से कह रहे हो
समंदर है तो वो प्यासा नहीं है
</poem>