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{{KKRachna
|रचनाकार=विजयशंकर चतुर्वेदी
}}{{KKAnthologyVarsha}}{{KKCatKavita}}<poem>बारिश है 
या घना जंगल बाँस का
 
उस पार एक स्त्री बहुत धुँधली
 
मैदान के दूसरे सिरे पर झोपड़ी
 
जैसे समंदर के बीच कोई टापू
 
वह दिख रही है यों
 
जैसे परदे पर चलता कोई दृश्य
 
जैसे नजर के चश्मे के बगैर देखा जाए कोई एलबम
 
जैसे बादलों में बनता है कोई आकार
 
जैसे पिघल रही हो बर्फ की प्रतिमा
 
घालमेल हो रहा है उसके रंगों में
 
ऊपर मटमैला
नीचे लाल
 
बीच में मटमैला-सा लाल
 
स्त्री निबटा रही है जल्दी-जल्दी काम
 
बेखबर
 
कि देख रहा है कोई
 
चली गई है झोपड़ी के पीछे
 
बारिश हो रही है तेजतर
 
जैसे आत्मा पर बढ़ता बोझ
 
नशे में डोलता है जैसे संसार
 
पुराने टीवी पर लहराता है जैसे दूरदर्शन का लोगो
 
दृश्य में हिल रही है वह स्त्री
 
माँज रही है बर्तन
 
उलीचने लगती है बीच-बीच में
 
घुटने-घुटने भर आया पानी
 
तन्मयता ऐसी कि
 
कब हो गई सराबोर सर से पाँव तक
 
जान ही नहीं पाई
 
अंदाजा लगाना है फिजूल
 
कि होगी उसकी कितनी उम्र
 
लगता है कि बनी है पानी ही की
 
कभी दिखने लगती है बच्ची
 
कभी युवती
 
कभी बूढ़ी
 
शायद कुछ बुदबुदा रही है वह
 
या विलाप कर रही है रह-रह कर
 
मैदान में बारिश से ज्यादा भरे हैं उसके आँसू
 
थोड़ी ही देर में शामिल हो गई उसकी बेटी
 
फिर निकला पति नंगे बदन
 
हाथ में लिए टूटा-फूटा तसला
 
वे चुनौती देने लगे सैलाब को
 
जो घुसा चला आता था ढीठ उनके संसार में
 
बारिश होती गई तेजतर
 
तीनों डूबने-उतराने लगे दृश्य में
 
जैसे नाविक लयबद्ध चप्पू चलाएँ
 
और महज आकृतियाँ बनते जाएँ
 
मैं ढीठ नजारा कर रहा था परदे की ओट से
 
तभी अचानक जागा गँदले पानी की चोट से
 
इस अश्लीलता की सजा
 
आखिरकार मिल ही गई मुझे।
</poem>
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