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"अलि! मैं कण-कण को जान चली / महादेवी वर्मा" के अवतरणों में अंतर

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अलि, मैं कण-कण को जान चली
 
अलि, मैं कण-कण को जान चली
 
 
सबका क्रन्दन पहचान चली
 
सबका क्रन्दन पहचान चली
 
  
 
जो दृग में हीरक-जल भरते
 
जो दृग में हीरक-जल भरते
 
 
जो चितवन इन्द्रधनुष करते
 
जो चितवन इन्द्रधनुष करते
 
 
टूटे सपनों के मनको से
 
टूटे सपनों के मनको से
 
 
जो सुखे अधरों पर झरते,
 
जो सुखे अधरों पर झरते,
 
  
 
जिस मुक्ताहल में मेघ भरे
 
जिस मुक्ताहल में मेघ भरे
 
 
जो तारो के तृण में उतरे,
 
जो तारो के तृण में उतरे,
 
 
मै नभ के रज के रस-विष के
 
मै नभ के रज के रस-विष के
 
 
आँसू के सब रँग जान चली।
 
आँसू के सब रँग जान चली।
 
  
 
जिसका मीठा-तीखा दंशन,
 
जिसका मीठा-तीखा दंशन,
 
 
अंगों मे भरता सुख-सिहरन,
 
अंगों मे भरता सुख-सिहरन,
 
 
जो पग में चुभकर, कर देता
 
जो पग में चुभकर, कर देता
 
 
जर्जर मानस, चिर आहत मन;
 
जर्जर मानस, चिर आहत मन;
 
  
 
जो मृदु फूलो के स्पन्दन से
 
जो मृदु फूलो के स्पन्दन से
 
 
जो पैना एकाकीपन से,
 
जो पैना एकाकीपन से,
 
 
मै उपवन निर्जन पथ के हर
 
मै उपवन निर्जन पथ के हर
 
 
कंटक का मृदु मत जान चली।
 
कंटक का मृदु मत जान चली।
 
  
 
गति का दे चिर वरदान चली।
 
गति का दे चिर वरदान चली।
 
 
जो जल में विद्युत-प्यास भरा
 
जो जल में विद्युत-प्यास भरा
 
 
जो आतप मे जल-जल निखरा,
 
जो आतप मे जल-जल निखरा,
 
 
जो झरते फूलो पर देता
 
जो झरते फूलो पर देता
 
 
निज चन्दन-सी ममता बिखरा;
 
निज चन्दन-सी ममता बिखरा;
 
  
 
जो आँसू में धुल-धुल उजला;
 
जो आँसू में धुल-धुल उजला;
 
 
जो निष्ठुर चरणों का कुचला,
 
जो निष्ठुर चरणों का कुचला,
 
 
मैं मरु उर्वर में कसक भरे
 
मैं मरु उर्वर में कसक भरे
 
 
अणु-अणु का कम्पन जान चली,
 
अणु-अणु का कम्पन जान चली,
 
 
प्रति पग को कर लयवान चली।
 
प्रति पग को कर लयवान चली।
 
  
 
नभ मेरा सपना स्वर्ण रजत
 
नभ मेरा सपना स्वर्ण रजत
 
 
जग संगी अपना चिर विस्मित
 
जग संगी अपना चिर विस्मित
 
 
यह शुल-फूल कर चिर नूतन
 
यह शुल-फूल कर चिर नूतन
 
 
पथ, मेरी साधों से निर्मित,
 
पथ, मेरी साधों से निर्मित,
 
 
  
 
इन आँखों के रस से गीली
 
इन आँखों के रस से गीली
 
 
रज भी है दिल से गर्वीली
 
रज भी है दिल से गर्वीली
 
 
मै सुख से चंचल दुख-बोझिल
 
मै सुख से चंचल दुख-बोझिल
 
 
क्षण-क्षण का जीवन जान चली!
 
क्षण-क्षण का जीवन जान चली!
 
 
मिटने को कर निर्माण चली!
 
मिटने को कर निर्माण चली!
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14:35, 11 जुलाई 2020 के समय का अवतरण

अलि, मैं कण-कण को जान चली
सबका क्रन्दन पहचान चली

जो दृग में हीरक-जल भरते
जो चितवन इन्द्रधनुष करते
टूटे सपनों के मनको से
जो सुखे अधरों पर झरते,

जिस मुक्ताहल में मेघ भरे
जो तारो के तृण में उतरे,
मै नभ के रज के रस-विष के
आँसू के सब रँग जान चली।

जिसका मीठा-तीखा दंशन,
अंगों मे भरता सुख-सिहरन,
जो पग में चुभकर, कर देता
जर्जर मानस, चिर आहत मन;

जो मृदु फूलो के स्पन्दन से
जो पैना एकाकीपन से,
मै उपवन निर्जन पथ के हर
कंटक का मृदु मत जान चली।

गति का दे चिर वरदान चली।
जो जल में विद्युत-प्यास भरा
जो आतप मे जल-जल निखरा,
जो झरते फूलो पर देता
निज चन्दन-सी ममता बिखरा;

जो आँसू में धुल-धुल उजला;
जो निष्ठुर चरणों का कुचला,
मैं मरु उर्वर में कसक भरे
अणु-अणु का कम्पन जान चली,
प्रति पग को कर लयवान चली।

नभ मेरा सपना स्वर्ण रजत
जग संगी अपना चिर विस्मित
यह शुल-फूल कर चिर नूतन
पथ, मेरी साधों से निर्मित,

इन आँखों के रस से गीली
रज भी है दिल से गर्वीली
मै सुख से चंचल दुख-बोझिल
क्षण-क्षण का जीवन जान चली!
मिटने को कर निर्माण चली!