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"तू धूल-भरा ही आया / महादेवी वर्मा" के अवतरणों में अंतर

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तू धूल-भरा ही आया!<br>
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तू धूल-भरा ही आया!
ओ चंचल जीवन-बाल! मृत्यु जननी ने अंक लगाया!<br>
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ओ चंचल जीवन-बाल! मृत्यु जननी ने अंक लगाया!
साधों ने पथ के कण मदिरा से सींचे,<br>
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साधों ने पथ के कण मदिरा से सींचे,
झंझा आँधी ने फिर-फिर आ दृग मींचे,<br>
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झंझा आँधी ने फिर-फिर आ दृग मींचे,
आलोक तिमिर ने क्षण का कुहक बिछाया!<br>
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आलोक तिमिर ने क्षण का कुहक बिछाया!
अंगार-खिलौनों का था मन अनुरागी,<br>
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अंगार-खिलौनों का था मन अनुरागी,
पर रोमों में हिम-जड़ित अवशता जागी,<br>
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पर रोमों में हिम-जड़ित अवशता जागी,
शत-शत प्यासों की चली बुभाती छाया!<br>
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शत-शत प्यासों की चली बुभाती छाया!
गाढे विषाद ने अंग कर दिये पंकिल,<br>
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गाढे विषाद ने अंग कर दिये पंकिल,
बिंध गये पगों में शूल व्यथा के दुर्मिल,<br>
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बिंध गये पगों में शूल व्यथा के दुर्मिल,
कर क्षार साँस ने उर का स्वर्ण उड़ाया!<br>
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कर क्षार साँस ने उर का स्वर्ण उड़ाया!
पाथेय-हीन जब सपने<br>
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पाथेय-हीन जब सपने
आख्यानशेष रह गये अंक ही अपने,<br>
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आख्यानशेष रह गये अंक ही अपने,
तब उस अंचल ने दे संकेत बुलाया!<br>
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तब उस अंचल ने दे संकेत बुलाया!
जिस दिन लौटा तू चकित थकित-सा उन्मन,<br>
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जिस दिन लौटा तू चकित थकित-सा उन्मन,
करुणा से उसके भर-भर आये लोचन,<br>
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करुणा से उसके भर-भर आये लोचन,
चितवन छाया में दृग-जल से नहलाया!<br>
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चितवन छाया में दृग-जल से नहलाया!
पालकों पर घर-घर अगणित शीतल चुम्बन,<br>
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पालकों पर घर-घर अगणित शीतल चुम्बन,
अपनी साँसों से पोंछ वेदना के क्षण,<br>
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अपनी साँसों से पोंछ वेदना के क्षण,
हिम स्निग्ध करों से बेसुध प्राण सुलाया!<br>
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हिम स्निग्ध करों से बेसुध प्राण सुलाया!
नूतन प्रभात में अक्षय यति का वर दे,<br>
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नूतन प्रभात में अक्षय यति का वर दे,
तन सजल घटा-सा तड़ित-छटा-सा उर दे<br>
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तन सजल घटा-सा तड़ित-छटा-सा उर दे
हँस तुझे खेलने फिर जग में पहुँचाया!<br>
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हँस तुझे खेलने फिर जग में पहुँचाया!
तू धूल भरा जब आया,<br>
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तू धूल भरा जब आया,
ओ चंचल जीवन-बाल मृत्यु-जननी ने अंक लगाया!<br><br>
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ओ चंचल जीवन-बाल मृत्यु-जननी ने अंक लगाया!
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22:13, 12 जुलाई 2020 के समय का अवतरण

तू धूल-भरा ही आया!
ओ चंचल जीवन-बाल! मृत्यु जननी ने अंक लगाया!
साधों ने पथ के कण मदिरा से सींचे,
झंझा आँधी ने फिर-फिर आ दृग मींचे,
आलोक तिमिर ने क्षण का कुहक बिछाया!
अंगार-खिलौनों का था मन अनुरागी,
पर रोमों में हिम-जड़ित अवशता जागी,
शत-शत प्यासों की चली बुभाती छाया!
गाढे विषाद ने अंग कर दिये पंकिल,
बिंध गये पगों में शूल व्यथा के दुर्मिल,
कर क्षार साँस ने उर का स्वर्ण उड़ाया!
पाथेय-हीन जब सपने
आख्यानशेष रह गये अंक ही अपने,
तब उस अंचल ने दे संकेत बुलाया!
जिस दिन लौटा तू चकित थकित-सा उन्मन,
करुणा से उसके भर-भर आये लोचन,
चितवन छाया में दृग-जल से नहलाया!
पालकों पर घर-घर अगणित शीतल चुम्बन,
अपनी साँसों से पोंछ वेदना के क्षण,
हिम स्निग्ध करों से बेसुध प्राण सुलाया!
नूतन प्रभात में अक्षय यति का वर दे,
तन सजल घटा-सा तड़ित-छटा-सा उर दे
हँस तुझे खेलने फिर जग में पहुँचाया!
तू धूल भरा जब आया,
ओ चंचल जीवन-बाल मृत्यु-जननी ने अंक लगाया!