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"चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
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चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में। | चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में। | ||
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दिवस में सबके लिए बस एक जग है | दिवस में सबके लिए बस एक जग है | ||
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रात में हर एक की दुनिया अलग है, | रात में हर एक की दुनिया अलग है, | ||
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कल्पना करने लगी अब राह मन में; | कल्पना करने लगी अब राह मन में; | ||
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चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में। | चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में। | ||
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भूमि के उर तप्त करता चंद्र शीतल | भूमि के उर तप्त करता चंद्र शीतल | ||
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व्योम की छाती जुड़ाती रश्मि कोमल, | व्योम की छाती जुड़ाती रश्मि कोमल, | ||
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किंतु भरतीं भवनाएँ दाह मन में; | किंतु भरतीं भवनाएँ दाह मन में; | ||
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चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में। | चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में। | ||
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कुछ अँधेरा, कुछ उजाला, क्या समा है! | कुछ अँधेरा, कुछ उजाला, क्या समा है! | ||
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कुछ करो, इस चाँदनी में सब क्षमा है; | कुछ करो, इस चाँदनी में सब क्षमा है; | ||
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किंतु बैठा मैं सँजोए आह मन में; | किंतु बैठा मैं सँजोए आह मन में; | ||
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चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में। | चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में। | ||
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चाँद निखरा, चंद्रिका निखरी हुई है, | चाँद निखरा, चंद्रिका निखरी हुई है, | ||
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भूमि से आकाश तक बिखरी हुई है, | भूमि से आकाश तक बिखरी हुई है, | ||
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काश मैं भी यों बिखर सकता भूवन में; | काश मैं भी यों बिखर सकता भूवन में; | ||
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चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में। | चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में। | ||
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21:21, 26 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
दिवस में सबके लिए बस एक जग है
रात में हर एक की दुनिया अलग है,
कल्पना करने लगी अब राह मन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
भूमि के उर तप्त करता चंद्र शीतल
व्योम की छाती जुड़ाती रश्मि कोमल,
किंतु भरतीं भवनाएँ दाह मन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
कुछ अँधेरा, कुछ उजाला, क्या समा है!
कुछ करो, इस चाँदनी में सब क्षमा है;
किंतु बैठा मैं सँजोए आह मन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
चाँद निखरा, चंद्रिका निखरी हुई है,
भूमि से आकाश तक बिखरी हुई है,
काश मैं भी यों बिखर सकता भूवन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।