"कोयल / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
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− | अहे, कोयल की पहली कूक ! | + | <poem> |
− | अचानक उसका पड़ना बोल, | + | अहे, कोयल की पहली कूक ! |
− | हृदय में मधुरस देना घोल, | + | अचानक उसका पड़ना बोल, |
− | श्रवणों का उत्सुक होना, बनाना जिह्वा का मूक ! | + | हृदय में मधुरस देना घोल, |
+ | श्रवणों का उत्सुक होना, बनाना जिह्वा का मूक ! | ||
− | कूक, कोयल, या कोई मंत्र, | + | कूक, कोयल, या कोई मंत्र, |
− | फूँक जो तू आमोद-प्रमोद, | + | फूँक जो तू आमोद-प्रमोद, |
− | भरेगी वसुंधरा की गोद ? | + | भरेगी वसुंधरा की गोद ? |
− | काया-कल्प-क्रिया करने का ज्ञात मुझे क्या तंत्र ? | + | काया-कल्प-क्रिया करने का ज्ञात मुझे क्या तंत्र ? |
− | बदल अब प्रकृति पुराना ठाट | + | बदल अब प्रकृति पुराना ठाट |
− | करेगी नया-नया श्रृंगार, | + | करेगी नया-नया श्रृंगार, |
− | सजाकर निज तन विविध प्रकार, | + | सजाकर निज तन विविध प्रकार, |
− | देखेगी ऋतुपति-प्रियतम के शुभागमन का बाट। | + | देखेगी ऋतुपति-प्रियतम के शुभागमन का बाट। |
− | करेगा आकर मंद समीर | + | करेगा आकर मंद समीर |
− | बाल-पल्लव-अधरों से बात, | + | बाल-पल्लव-अधरों से बात, |
− | ढँकेंगी तरुवर गण के गात | + | ढँकेंगी तरुवर गण के गात |
− | नई पत्तियाँ पहना उनको हरी सुकोमल चीर। | + | नई पत्तियाँ पहना उनको हरी सुकोमल चीर। |
− | वसंती, पीले, नील, लाले, | + | वसंती, पीले, नील, लाले, |
− | बैंगनी आदि रंग के फूल, | + | बैंगनी आदि रंग के फूल, |
− | फूलकर गुच्छ-गुच्छ में झूल, | + | फूलकर गुच्छ-गुच्छ में झूल, |
− | झूमेंगे तरुवर शाखा में वायु-हिंडोले डाल। | + | झूमेंगे तरुवर शाखा में वायु-हिंडोले डाल। |
− | मक्खियाँ कृपणा होंगी मग्न, | + | मक्खियाँ कृपणा होंगी मग्न, |
− | माँग सुमनों से रस का दान, | + | माँग सुमनों से रस का दान, |
− | सुना उनको निज गुन-गुन गान, | + | सुना उनको निज गुन-गुन गान, |
− | मधु-संचय करने में होंगी तन-मन से संलग्न ! | + | मधु-संचय करने में होंगी तन-मन से संलग्न ! |
+ | नयन खोले सर कमल समान, | ||
+ | बनी-वन का देखेंगे रूप— | ||
+ | युगल जोड़ी सुछवि अनूप; | ||
+ | उन कंजों पर होंगे भ्रमरों के नर्तन गुंजान। | ||
− | + | बहेगा सरिता में जल श्वेत, | |
− | + | समुज्ज्वल दर्पण के अनुरूप, | |
− | + | देखकर जिसमें अपना रूप, | |
− | + | पीत कुसुम की चादर ओढ़ेंगे सरसों के खेत। | |
− | + | कुसुम-दल से पराग को छीन, | |
− | + | चुरा खिलती कलियों की गंध, | |
− | + | कराएगा उनका गठबंध, | |
− | + | पवन-पुरोहित गंध सूरज से रज सुगंध से भीन। | |
− | + | फिरेंगे पशु जोड़े ले संग, | |
− | + | संग अज-शावक, बाल-कुरंग, | |
− | + | फड़कते हैं जिनके प्रत्यंग, | |
− | + | पर्वत की चट्टानों पर कूदेंगे भरे उमंग। | |
− | + | पक्षियों के सुन राग-कलाप— | |
− | + | प्राकृतिक नाद, ग्राम सुर, ताल, | |
− | + | शुष्क पड़ जाएँगे तत्काल, | |
− | + | गंधर्वों के वाद्य-यंत्र किन्नर के मधुर अलाप। | |
− | + | इन्द्र अपना इन्द्रासन त्याग, | |
− | + | अखाड़े अपने करके बंद, | |
− | + | परम उत्सुक-मन दौड़ अमंद, | |
− | + | खोलेगा सुनने को नंदन-द्वार भूमि का राग ! | |
− | + | करेगी मत्त मयूरी नृत्य | |
− | + | अन्य विहगों का सुनकर गान, | |
− | + | देख यह सुरपति लेगा मान, | |
− | + | परियों के नर्तन हैं केवल आडंबर के कृत्य ! | |
− | + | अहे, फिर ‘कुऊ’ पूर्ण-आवेश ! | |
− | + | सुनाकर तू ऋतुपति-संदेश, | |
− | + | लगी दिखलाने उसका वेश, | |
− | + | क्षणिक कल्पने मुझे घमाए तूने कितने देश ! | |
− | + | कोकिले, पर यह तेरा राग | |
− | + | हमारे नग्न-बुभुक्षित देश | |
− | + | के लिए लाया क्या संदेश ? | |
− | + | साथ प्रकृति के बदलेगा इस दीन देश का भाग ? | |
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− | कोकिले, पर यह तेरा राग | + | |
− | हमारे नग्न-बुभुक्षित देश | + | |
− | के लिए लाया क्या संदेश ? | + | |
− | साथ प्रकृति के बदलेगा इस दीन देश का भाग ?< | + |
20:55, 27 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
अहे, कोयल की पहली कूक !
अचानक उसका पड़ना बोल,
हृदय में मधुरस देना घोल,
श्रवणों का उत्सुक होना, बनाना जिह्वा का मूक !
कूक, कोयल, या कोई मंत्र,
फूँक जो तू आमोद-प्रमोद,
भरेगी वसुंधरा की गोद ?
काया-कल्प-क्रिया करने का ज्ञात मुझे क्या तंत्र ?
बदल अब प्रकृति पुराना ठाट
करेगी नया-नया श्रृंगार,
सजाकर निज तन विविध प्रकार,
देखेगी ऋतुपति-प्रियतम के शुभागमन का बाट।
करेगा आकर मंद समीर
बाल-पल्लव-अधरों से बात,
ढँकेंगी तरुवर गण के गात
नई पत्तियाँ पहना उनको हरी सुकोमल चीर।
वसंती, पीले, नील, लाले,
बैंगनी आदि रंग के फूल,
फूलकर गुच्छ-गुच्छ में झूल,
झूमेंगे तरुवर शाखा में वायु-हिंडोले डाल।
मक्खियाँ कृपणा होंगी मग्न,
माँग सुमनों से रस का दान,
सुना उनको निज गुन-गुन गान,
मधु-संचय करने में होंगी तन-मन से संलग्न !
नयन खोले सर कमल समान,
बनी-वन का देखेंगे रूप—
युगल जोड़ी सुछवि अनूप;
उन कंजों पर होंगे भ्रमरों के नर्तन गुंजान।
बहेगा सरिता में जल श्वेत,
समुज्ज्वल दर्पण के अनुरूप,
देखकर जिसमें अपना रूप,
पीत कुसुम की चादर ओढ़ेंगे सरसों के खेत।
कुसुम-दल से पराग को छीन,
चुरा खिलती कलियों की गंध,
कराएगा उनका गठबंध,
पवन-पुरोहित गंध सूरज से रज सुगंध से भीन।
फिरेंगे पशु जोड़े ले संग,
संग अज-शावक, बाल-कुरंग,
फड़कते हैं जिनके प्रत्यंग,
पर्वत की चट्टानों पर कूदेंगे भरे उमंग।
पक्षियों के सुन राग-कलाप—
प्राकृतिक नाद, ग्राम सुर, ताल,
शुष्क पड़ जाएँगे तत्काल,
गंधर्वों के वाद्य-यंत्र किन्नर के मधुर अलाप।
इन्द्र अपना इन्द्रासन त्याग,
अखाड़े अपने करके बंद,
परम उत्सुक-मन दौड़ अमंद,
खोलेगा सुनने को नंदन-द्वार भूमि का राग !
करेगी मत्त मयूरी नृत्य
अन्य विहगों का सुनकर गान,
देख यह सुरपति लेगा मान,
परियों के नर्तन हैं केवल आडंबर के कृत्य !
अहे, फिर ‘कुऊ’ पूर्ण-आवेश !
सुनाकर तू ऋतुपति-संदेश,
लगी दिखलाने उसका वेश,
क्षणिक कल्पने मुझे घमाए तूने कितने देश !
कोकिले, पर यह तेरा राग
हमारे नग्न-बुभुक्षित देश
के लिए लाया क्या संदेश ?
साथ प्रकृति के बदलेगा इस दीन देश का भाग ?