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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
|अनुवादक=
|संग्रह=
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{{KKCatKavita}}<poem>एक दिन मैंने प्यार प्यार पाया, किया था, और प्यार प्यार से घृणा तक
उसके हर पहू को एकांत में जिया था,
और बहुत कुछ किया था,
जो मुझसे भाग्यवानभाग्यवान-उभागे करते हैं, भोगते हैं,
मगर छिपाते हैं;
मैंने छिपाए को शब्दों शब्दों में खोला था,
लिखा था, गया था, सुनाया था,
निचाट में अकेला खड़ा वह प्रसाद
एक रहस्य रहस्य था, भेद-भरा, भुतहा;
बहुतों ने सुनी थी
रात-विरात, आधी रात
एक चीख, पुकार, प्यार प्यार का मनुहार, मदमस्तों मदमस्तों का तुमुल उन्मादउन्माद, अट्टहास,
कभी एक तान, कभी सामूहिक गान,
दुखिया की आह, चोट खाए घायल की कराह,
फिर मौन (मौत भी सुना जा सकता)
पूछता-सा क्याक्या? कब? कहाँ? कौन? कौ...न?...
मैं भी भूत हो जाऊँ, उसके पूर्व सोचा,
एक पारदर्शी द्वार है जो खोला जा सकता है।
भूतों का भोजन है भेद, रहस्यरहस्य, अंधकार;
भूतों को असह्य उजियार,
पार से उठता सवाल।
भूतों की कचहरी भी होती है।
हो चुका है मुझसे अपराध,
भूतों का दल तन्नायातन्नाया-भिन्नायाभिन्नाया, मुझ पर टूट
माँग रहा है मुझसे
पल, छिन, दिन, पाख, मास-
समय का सारा परिवार-
मैंने महसूस कर ली है अपनी भूल,
सीख लिया है कड़ुआ पाठ,