भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"पहले एक घर थी धरती / अशोक शाह" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक शाह }} {{KKCatKavita}} <poem> </poem>' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
+ | मकान | ||
+ | सभ्यता की पूर्ण विराम की तरह | ||
+ | गड़ें है धरती की छाती में | ||
+ | आदमी जब से पैदा हुआ | ||
+ | आदमी के रूप में | ||
+ | मकान बना रहा है | ||
+ | कच्चे-पक्के, छोटे-बड़े | ||
+ | और बढ़ा रहा बोझ | ||
+ | लुटा रहा चैन | ||
+ | धरती का | ||
+ | |||
+ | पहले एक घर थी धरती | ||
+ | अब बदल रही मकानों में | ||
+ | कंक्रीट और पत्थरों के | ||
+ | जिसके दीवारों के भीतर | ||
+ | दबी कैद है उसकी | ||
+ | अपनेपन की समीएँ | ||
+ | |||
+ | कहते हैं | ||
+ | जब से सभ्यता की शुरूआत हुई | ||
+ | और सोचने लगा था आदमी | ||
+ | बनने लगी थीं दीवारें | ||
+ | उन दीवारों से मकान | ||
+ | मकानों के भीतर मकान | ||
+ | |||
+ | ये मकान अब तक बन रहे हैं | ||
+ | और आदमी आज भी | ||
+ | सभ्य हुआ जा रहा है | ||
</poem> | </poem> |
14:28, 7 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
मकान
सभ्यता की पूर्ण विराम की तरह
गड़ें है धरती की छाती में
आदमी जब से पैदा हुआ
आदमी के रूप में
मकान बना रहा है
कच्चे-पक्के, छोटे-बड़े
और बढ़ा रहा बोझ
लुटा रहा चैन
धरती का
पहले एक घर थी धरती
अब बदल रही मकानों में
कंक्रीट और पत्थरों के
जिसके दीवारों के भीतर
दबी कैद है उसकी
अपनेपन की समीएँ
कहते हैं
जब से सभ्यता की शुरूआत हुई
और सोचने लगा था आदमी
बनने लगी थीं दीवारें
उन दीवारों से मकान
मकानों के भीतर मकान
ये मकान अब तक बन रहे हैं
और आदमी आज भी
सभ्य हुआ जा रहा है