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"जि़न्दगी है, फरमाइश तो नहीं / अशोक शाह" के अवतरणों में अंतर
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+ | उलट-पलट के देखो हर क्षण को | ||
+ | उसके पीछे लगा कोई दाग तो नहीं | ||
+ | चिपका न हो कोई उपदेश | ||
+ | लिखा कोई दिशा निर्देश | ||
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+ | घिसें विचार ही बन गये हो न राह | ||
+ | हमारी रिवायतो की बिछी हो न दरी | ||
+ | हर परदा हटाके, हर दरीचा खोलके देखो | ||
+ | आने दो वह सबा जो सदियों से | ||
+ | आ न सकी भीतर | ||
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+ | रखो जख़्मों पर उँगली और जानो, | ||
+ | इंसां के दर्द का कारण क्या है | ||
+ | निकल पड़ो दिशाहीन अकेला | ||
+ | जहाँ साथ न हो तुम्हारी परछाई भी | ||
+ | आख़िर यह ज़िन्दगी तुम्हारी है | ||
+ | किसी की फ़रमाईश तो नहीं | ||
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22:08, 7 अगस्त 2020 का अवतरण
बिल्कुल सम्भलकर न चलो
धरो ना फूँक फूँक के पाँव
उधर जाने से डरो न इधर आने से
दिन-रात के हर पहर से गुजरो
जरा देखों तो कोई पल अछूता
छूट गया हो कहीं
उलट-पलट के देखो हर क्षण को
उसके पीछे लगा कोई दाग तो नहीं
चिपका न हो कोई उपदेश
लिखा कोई दिशा निर्देश
घिसें विचार ही बन गये हो न राह
हमारी रिवायतो की बिछी हो न दरी
हर परदा हटाके, हर दरीचा खोलके देखो
आने दो वह सबा जो सदियों से
आ न सकी भीतर
रखो जख़्मों पर उँगली और जानो,
इंसां के दर्द का कारण क्या है
निकल पड़ो दिशाहीन अकेला
जहाँ साथ न हो तुम्हारी परछाई भी
आख़िर यह ज़िन्दगी तुम्हारी है
किसी की फ़रमाईश तो नहीं