भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उस ज़ुल्फ़ की याद जब आने लगी / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
{{KKCatGhazal}}
 
{{KKCatGhazal}}
 
<poem>   
 
<poem>   
 
 
उस ज़ुल्फ़ की याद जब आने लगी  
 
उस ज़ुल्फ़ की याद जब आने लगी  
 
इक नागन-सी लहराने लगी  
 
इक नागन-सी लहराने लगी  
पंक्ति 12: पंक्ति 11:
 
क्यों आँख तेरी शरमाने लगी  
 
क्यों आँख तेरी शरमाने लगी  
  
क्या़ मौजे-सबा थी मेरी नज़र  
+
क्या मौजे-सबा थी मेरी नज़र  
 
क्यों ज़ुल्फ़ तेरी बल खाने लगी  
 
क्यों ज़ुल्फ़ तेरी बल खाने लगी  
  
पंक्ति 18: पंक्ति 17:
 
कुछ साग़र-सी छलकाने लगी  
 
कुछ साग़र-सी छलकाने लगी  
  
या रब यॉ चल गयी कैसी हवा  
+
या रब याँ चल गयी कैसी हवा  
 
क्यों दिल की कली मुरझाने लगी  
 
क्यों दिल की कली मुरझाने लगी  
  
पंक्ति 43: पंक्ति 42:
  
 
क्या बात हुई ये आँख तेरी  
 
क्या बात हुई ये आँख तेरी  
क्यों लाखों कसमें खाने लगी  
+
क्यों लाखों क़समें खाने लगी  
  
 
अब मेरी निगाहे-शौक़ तेरे  
 
अब मेरी निगाहे-शौक़ तेरे  
पंक्ति 54: पंक्ति 53:
 
गुलज़ारों को महकाने लगी  
 
गुलज़ारों को महकाने लगी  
  
बेगोरो-कफ़न जंगल में ये लाश
+
बेगोरो-क़फ़न जंगल में ये लाश
दीवाने की ख़ाक उड़ाने लगी  
+
दीवाने की ख़ाक उड़ाने लगी  
  
वो सुब्ह‍ की देवी ज़ेरे शफ़क़  
+
वो सुब्ह‍ की देवी ज़ेरे-शफ़क़  
 
घूँघट-सी ज़रा सरकाने लगी  
 
घूँघट-सी ज़रा सरकाने लगी  
  
उस वक्त 'फ़ि‍राक' हुई यॅ ग़ज़ल  
+
उस वक्त 'फ़ि‍राक' हुई ये ग़ज़ल  
 
जब तारों को नींद आने लगी
 
जब तारों को नींद आने लगी
  
 
</poem>
 
</poem>

22:57, 10 अगस्त 2020 के समय का अवतरण

  
उस ज़ुल्फ़ की याद जब आने लगी
इक नागन-सी लहराने लगी

जब ज़ि‍क्र तेरा महफ़ि‍ल में छिड़ा
क्यों आँख तेरी शरमाने लगी

क्या मौजे-सबा थी मेरी नज़र
क्यों ज़ुल्फ़ तेरी बल खाने लगी

महफ़ि‍ल में तेरी एक-एक अदा
कुछ साग़र-सी छलकाने लगी

या रब याँ चल गयी कैसी हवा
क्यों दिल की कली मुरझाने लगी

शामे-वादा कुछ रात गये
तारों को तेरी याद आने लगी

साज़ों ने आँखे झपकायीं
नग़्मों को मेरे नींद आने लगी

जब राहे-ज़ि‍न्दगी काट चुके
हर मंज़ि‍ल की याद आने लगी

क्या उन जु़ल्फ़ों को देख लिया
क्यों मौजे-सबा थर्राने लगी

तारे टूटे या आँख कोई
अश्कों से गुहर बरसाने लगी

तहज़ीब उड़ी है धुआँ बन कर
 सदियों की सई ठिकाने लगी

कूचा-कूचा रफ़्ता-रफ़्ता
वो चाल क़यामत ढाने लगी

क्या बात हुई ये आँख तेरी
क्यों लाखों क़समें खाने लगी

अब मेरी निगाहे-शौक़ तेरे
रुख़सारों के फूल खिलाने लगी

फि‍र रात गये बज़्मे-अंजुम
रूदाद तेरी दोहराने लगी

फि‍र याद तेरी हर सीने के
गुलज़ारों को महकाने लगी

बेगोरो-क़फ़न जंगल में ये लाश
दीवाने की ख़ाक उड़ाने लगी

वो सुब्ह‍ की देवी ज़ेरे-शफ़क़
घूँघट-सी ज़रा सरकाने लगी

उस वक्त 'फ़ि‍राक' हुई ये ग़ज़ल
जब तारों को नींद आने लगी