"निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह= | |संग्रह= | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatGhazal}} | |
− | + | <poem> | |
+ | निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या | ||
+ | हिजाब अहल-ए-मोहब्बत को आए हैं क्या क्या | ||
− | + | जहाँ में थी बस इक अफ़वाह तेरे जल्वों की | |
+ | चराग़-ए-दैर-ओ-हरम झिलमिलाए हैं क्या क्या | ||
+ | दो-चार बर्क़-ए-तजल्ली से रहने वालों ने | ||
+ | फ़रेब नर्म-निगाही के खाए हैं क्या क्या | ||
− | + | दिलों पे करते हुए आज आती जाती चोट | |
+ | तिरी निगाह ने पहलू बचाए हैं क्या क्या | ||
− | + | निसार नर्गिस-ए-मय-गूँ कि आज पैमाने | |
+ | लबों तक आए हुए थरथराए हैं क्या क्या | ||
+ | वो इक ज़रा सी झलक बर्क़-ए-कम-निगाही की | ||
+ | जिगर के ज़ख़्म-ए-निहाँ मुस्कुराए हैं क्या क्या | ||
− | + | चराग़-ए-तूर जले आइना-दर-आईना | |
+ | हिजाब बर्क़-ए-अदा ने उठाए हैं क्या क्या | ||
− | + | ब-क़द्र-ए-ज़ौक़-ए-नज़र दीद-ए-हुस्न क्या हो मगर | |
+ | निगाह-ए-शौक़ में जल्वे समाए हैं क्या क्या | ||
+ | कहीं चराग़ कहीं गुल कहीं दिल-ए-बर्बाद | ||
+ | ख़िराम-ए-नाज़ ने फ़ित्ने उठाए हैं क्या क्या | ||
− | + | तग़ाफ़ुल और बढ़ा उस ग़ज़ाल-ए-रअना का | |
+ | फ़ुसून-ए-ग़म ने भी जादू जगाए हैं क्या क्या | ||
− | + | हज़ार फ़ित्ना-ए-बेदार ख़्वाब-ए-रंगीं में | |
+ | चमन में ग़ुंचा-ए-गुल-रंग लाए हैं क्या क्या | ||
+ | तिरे ख़ुलूस-ए-निहाँ का तो आह क्या कहना | ||
+ | सुलूक उचटटे भी दिल में समाए हैं क्या क्या | ||
− | + | नज़र बचा के तिरे इश्वा-हा-ए-पिन्हाँ ने | |
+ | दिलों में दर्द-ए-मोहब्बत उठाए हैं क्या क्या | ||
− | बड़े बड़ों के क़दम डगमगाए हैं क्या | + | पयाम-ए-हुस्न पयाम-ए-जुनूँ पयाम-ए-फ़ना |
+ | तिरी निगह ने फ़साने सुनाए हैं क्या क्या | ||
+ | |||
+ | तमाम हुस्न के जल्वे तमाम महरूमी | ||
+ | भरम निगाह ने अपने गँवाए हैं क्या क्या | ||
+ | |||
+ | 'फ़िराक़' राह-ए-वफ़ा में सुबुक-रवी तेरी | ||
+ | बड़े-बड़ों के क़दम डगमगाए हैं क्या क्या | ||
+ | </poem> |
13:04, 11 अगस्त 2020 का अवतरण
निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या
हिजाब अहल-ए-मोहब्बत को आए हैं क्या क्या
जहाँ में थी बस इक अफ़वाह तेरे जल्वों की
चराग़-ए-दैर-ओ-हरम झिलमिलाए हैं क्या क्या
दो-चार बर्क़-ए-तजल्ली से रहने वालों ने
फ़रेब नर्म-निगाही के खाए हैं क्या क्या
दिलों पे करते हुए आज आती जाती चोट
तिरी निगाह ने पहलू बचाए हैं क्या क्या
निसार नर्गिस-ए-मय-गूँ कि आज पैमाने
लबों तक आए हुए थरथराए हैं क्या क्या
वो इक ज़रा सी झलक बर्क़-ए-कम-निगाही की
जिगर के ज़ख़्म-ए-निहाँ मुस्कुराए हैं क्या क्या
चराग़-ए-तूर जले आइना-दर-आईना
हिजाब बर्क़-ए-अदा ने उठाए हैं क्या क्या
ब-क़द्र-ए-ज़ौक़-ए-नज़र दीद-ए-हुस्न क्या हो मगर
निगाह-ए-शौक़ में जल्वे समाए हैं क्या क्या
कहीं चराग़ कहीं गुल कहीं दिल-ए-बर्बाद
ख़िराम-ए-नाज़ ने फ़ित्ने उठाए हैं क्या क्या
तग़ाफ़ुल और बढ़ा उस ग़ज़ाल-ए-रअना का
फ़ुसून-ए-ग़म ने भी जादू जगाए हैं क्या क्या
हज़ार फ़ित्ना-ए-बेदार ख़्वाब-ए-रंगीं में
चमन में ग़ुंचा-ए-गुल-रंग लाए हैं क्या क्या
तिरे ख़ुलूस-ए-निहाँ का तो आह क्या कहना
सुलूक उचटटे भी दिल में समाए हैं क्या क्या
नज़र बचा के तिरे इश्वा-हा-ए-पिन्हाँ ने
दिलों में दर्द-ए-मोहब्बत उठाए हैं क्या क्या
पयाम-ए-हुस्न पयाम-ए-जुनूँ पयाम-ए-फ़ना
तिरी निगह ने फ़साने सुनाए हैं क्या क्या
तमाम हुस्न के जल्वे तमाम महरूमी
भरम निगाह ने अपने गँवाए हैं क्या क्या
'फ़िराक़' राह-ए-वफ़ा में सुबुक-रवी तेरी
बड़े-बड़ों के क़दम डगमगाए हैं क्या क्या