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"कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर

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उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम
  
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम<br>
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रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम<br><br>
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वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम  
  
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये<br>
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होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम<br><br>
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इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम  
  
होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल--दिल को हो सकी<br>
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बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़--दर्द
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम<br><br>
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तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम  
  
बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़--दर्द<br>
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भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद--दोस्ती
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम<br><br>
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उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम  
  
भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती<br>
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हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'  
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम<br><br>
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महरबाँ ना-महरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम
 
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हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'<br>
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मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम<br><br>
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13:10, 11 अगस्त 2020 का अवतरण

साँचा:KKAnthologyHusn

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम

रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम

होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम

बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम

भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम

हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'
महरबाँ ना-महरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम