"इक ठंडी धूप भी शामिल थी अब के सायों की तबाही में / रमेश तन्हा" के अवतरणों में अंतर
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इक ठंडी धूप भी शामिल थी अब के सायों की तबाही में,
इल्ज़ाम कि रौशनियों को हम देते रहे कम-अगाही में।
मौसम भी वही मंज़र भी वही, रस्ता भी वही, राही भी वही,
फिर भी क्या जाने बात थी क्या, वो बात नहीं थी राही में।
आईने के आगे बैठे, हम अक्सर सोचा करते हैं
क्या कुछ पाया, क्या कुछ खोया चेहरों ने खुद आगाही में।
जब भी सोचा, कुछ अरमां तो उस नंगे पेड़ के भी होंगे
इक पीला पत्ता झूल गया, जैसे हर बार गवाही में।
माना न हम्हीं ने रंगों की बारात गुज़रने वाली है
मौसम का परिंदा कह तो गया था अपनी ताज़ा गवाही में।
जैसे पूरी बस्ती ने ही देखा हो भयानक ख़्वाब कोई
हर चेहरे पर इक दहशत थी इक कर्ब तमाम फ़ज़ा ही में।
चांदी सी याद कोई लम्हा जब पलकों पर रख जाता है
जलते रहते हैं दीये से कई शब की घनघोर सियाही में।
हर रोज़ तो मैं भी नहीं कहता, लेकिन कभी आ मिल बैठो तो
बस दिन दो दिन के लिए ही सही सहमाही में , शशमाही में।
गह धनक रंग, गह सब उमंग, बजते हों, जैसे जल-तरंग
है सात सुरों का खुमियाज़ा उस शोख़ की एक जमाही में।
धरती आकाश की बाहों में, इंसान की हस्ती क्या कहिये
इक आलमे-ला-मुतनाही है, इक आलमे-लामुतनाही में।
मैं ने आंखों में उजालों की खुद आंखें डाल के देखा है
उन में है रूह वही 'तन्हा' जो है रातों की सियाही में।