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तुम्हारा दोष
कैसे कह दूँ
पशुपति
तुमने तो
ख़ुद को गढ़ा नहीं
हमने ही
बनाया देवता
तुम्हें काम का
हमने ही
तय की तिथि
तुम्हारी प्रणय-रात्रि की
हमने ही
रचे मंत्र
तुम्हारे अभिषेक के
हम ही
माँगते रहे वरदान
चिर यौवन का...
इस बार भी वरदान के पिपासुओं ने
ख़ूब मनाई
तुम्हारी प्रणय-रात्रि
तुम्हारे मन्दिरों के बाहर
नालियों में
बहता देखा
ख़ून मैंने निरीह पशुओं का
लोग
जिसे दूध कहते रहे..!