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"बोधिसत्व / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

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'''बोधिसत्त्व'''
 
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तप की आग, त्याग की ज्वाला से प्रबोध-संधान किया ,
 
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विष पी स्वयं, अमृत जीवन का तृफित विश्व को दन किया ।
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विष पी स्वयं, अमृत जीवन का तृषित विश्व को दान किया ।
वैशाली की धूल चरन चूमने ललक ललचाती है ,
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वैशाली की धूल चरण चूमने ललक ललचाती है ,
 
स्मृति-पूजन में तप-कानन की लता पुष्प बरसाती है ।
 
स्मृति-पूजन में तप-कानन की लता पुष्प बरसाती है ।
  
 
वट के नीचे खड़ी खोजती लिए सुजाता खीर तुम्हें ,
 
वट के नीचे खड़ी खोजती लिए सुजाता खीर तुम्हें ,
बोदिवृक्ष-तल बुला रहे कलरव में कोकिल-कीर तुम्हें ।
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बोधिवृक्ष-तल बुला रहे कलरव में कोकिल-कीर तुम्हें ।
 
शस्त्र-भार से विकल खोजती रह-रह धरा अधीर तुम्हें ,
 
शस्त्र-भार से विकल खोजती रह-रह धरा अधीर तुम्हें ,
प्रभॊ ! पुकार रही व्याकुल मानवता की जंजीर तुम्हें ।  
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आह ! सभ्यता के प्राङ्गण में आज गरल-वर्षण कैसा !
 
आह ! सभ्यता के प्राङ्गण में आज गरल-वर्षण कैसा !
 
धृणा सिखा निर्वाण दिलानेवाला यह दर्शन कैसा !
 
धृणा सिखा निर्वाण दिलानेवाला यह दर्शन कैसा !
 
स्मृतियों का अंधेर ! शास्त्र का दम्भ ! तर्क का छल कैसा !  
 
स्मृतियों का अंधेर ! शास्त्र का दम्भ ! तर्क का छल कैसा !  
दीन दुखी ससहाय जनों पर अत्याचार प्रबल कैसा !
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दीन दुखी असहाय जनों पर अत्याचार प्रबल कैसा !
  
 
आज दीनता को प्रभु की पूजा का भी अधिकार नहीं ,
 
आज दीनता को प्रभु की पूजा का भी अधिकार नहीं ,
देव ! बना था क्या दुकियों के लिए निठुर संसार नहीं ?
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देव ! बना था क्या दुखियों के लिए निठुर संसार नहीं ?
 
धन-पिशाच की विजय, धर्म की पावन ज्योति अदृश्य हुई ,
 
धन-पिशाच की विजय, धर्म की पावन ज्योति अदृश्य हुई ,
दौड़ो बोधिसत्त्व ! भारत में मानव्ता अस्पृश्य हुई ।
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दौड़ो बोधिसत्त्व ! भारत में मानवता अस्पृश्य हुई ।
  
 
धूप-दीप, आरती, कुसुम ले भक्त प्रेम-वश आते हैं ,
 
धूप-दीप, आरती, कुसुम ले भक्त प्रेम-वश आते हैं ,
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मेवा छोड़ शाक खाने का याद नाथ को नेम नहीं ।
 
मेवा छोड़ शाक खाने का याद नाथ को नेम नहीं ।
  
पर, गुलाब -जल में गरीब के अश्रु राम क्या पायेंगे ?
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पर, गुलाब-जल में गरीब के अश्रु राम क्या पायेंगे ?
 
बिना नहाये इस जल में क्या नारायण कहलायेंगे ?
 
बिना नहाये इस जल में क्या नारायण कहलायेंगे ?
 
मनुज-मेघ के पोषक दानव आज निपट निर्द्वन्द्व हुए ;
 
मनुज-मेघ के पोषक दानव आज निपट निर्द्वन्द्व हुए ;

12:06, 27 अगस्त 2020 के समय का अवतरण

बोधिसत्त्व

सिमट विश्व-वेदना निखिल बज उठी करुण अन्तर में,
देव ! हुंकरित हुआ कठिन युगधर्म तुम्हारे स्वर में ।
काँटों पर कलियों, गैरिक पर किया मुकुट का त्याग
किस सुलग्न में जगा प्रभो ! यौवन का तीव्र विराग ?
चले ममता का बंधन तोड़
विश्व की महामुक्ति की ओर ।

तप की आग, त्याग की ज्वाला से प्रबोध-संधान किया ,
विष पी स्वयं, अमृत जीवन का तृषित विश्व को दान किया ।
वैशाली की धूल चरण चूमने ललक ललचाती है ,
स्मृति-पूजन में तप-कानन की लता पुष्प बरसाती है ।

वट के नीचे खड़ी खोजती लिए सुजाता खीर तुम्हें ,
बोधिवृक्ष-तल बुला रहे कलरव में कोकिल-कीर तुम्हें ।
शस्त्र-भार से विकल खोजती रह-रह धरा अधीर तुम्हें ,
प्रभो ! पुकार रही व्याकुल मानवता की जंजीर तुम्हें ।

आह ! सभ्यता के प्राङ्गण में आज गरल-वर्षण कैसा !
धृणा सिखा निर्वाण दिलानेवाला यह दर्शन कैसा !
स्मृतियों का अंधेर ! शास्त्र का दम्भ ! तर्क का छल कैसा !
दीन दुखी असहाय जनों पर अत्याचार प्रबल कैसा !

आज दीनता को प्रभु की पूजा का भी अधिकार नहीं ,
देव ! बना था क्या दुखियों के लिए निठुर संसार नहीं ?
धन-पिशाच की विजय, धर्म की पावन ज्योति अदृश्य हुई ,
दौड़ो बोधिसत्त्व ! भारत में मानवता अस्पृश्य हुई ।

धूप-दीप, आरती, कुसुम ले भक्त प्रेम-वश आते हैं ,
मन्दिर का पट बन्द देख ‘जय’ कह निराश फिर जाते हैं ।
शबरी के जूठे बेरों से आज राम को प्रेम नहीं ,
मेवा छोड़ शाक खाने का याद नाथ को नेम नहीं ।

पर, गुलाब-जल में गरीब के अश्रु राम क्या पायेंगे ?
बिना नहाये इस जल में क्या नारायण कहलायेंगे ?
मनुज-मेघ के पोषक दानव आज निपट निर्द्वन्द्व हुए ;
कैसे बचे दीन ? प्रभु भी धनियों के गृह में बन्द हुए ।

अनाचार की तीव्र आँच में अपमानित अकुलाते हैं ,
जागो बोधिसत्त्व ! भारत के हरिजन तुम्हें बुलाते हैं ।
जागो विप्लव के वाक्‌ ! दम्भियों के इन अत्याचारों से ,
जागो, हे जागो, तप-निधान ! दलितों के हाहाकारों से ।

जागो, गांधी पर किये गए नरपशु-पतितों के वारों से , *
जागो, मैत्री-निर्घोष ! आज व्यापक युगधर्म-पुकारों से ।
जागो, गौतम ! जागो, महान !
जागो, अतीत के क्रांति-गान !
जागो, जगती के धर्म-तत्त्व !
जागो, हे ! जागो बोधिसत्त्व !

१९३४

  • देवधर [बिहार] में महात्मा गांधी पर किये गए प्रहार का उल्लेख।