भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जग को आंख खोलकर देखा / सर्वेश अस्थाना" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सर्वेश अस्थाना |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
16:09, 29 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
जग को आंख खोलकर देखा तो हम खुद ही बुद्ध हो गए।
खिले प्रेम के पुष्प झर गए,
अमर शक्ति के कल्प मर गए।
जो खुद को कहते थे राजा,
गए, मगर सब यहीं धर गए।
कुछ भी नही अनंत यहां पर जान समझ कर शुद्ध हो गए।
जग को आंख....।
अंदर दीप जला तो माना,
स्वयं प्रकाशित हैं यह जाना।
जबतक खुद ही समझ न जाएं
समझेंगे बस अब यह ठाना।
सिद्ध अर्थ जब सम्मुख आया पथ अबोध अवरुद्ध हो गए।
जग को आंख खोल.....।
हुआ विचारों का सत्यापन
स्वयं दिया जब खुद को ज्ञापन
अपना दीप बना जब मन तो
करने लगा जगत अभिवादन।
प्रथम स्वांस से अंतिम पल तक खुद को जीत प्रबुद्ध हो गए।
जग आंख खोल.....।