"रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 5" के अवतरणों में अंतर
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'करना क्या अपमान ठीक है इस अनमोल रतन का, | 'करना क्या अपमान ठीक है इस अनमोल रतन का, | ||
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मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का। | मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का। | ||
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बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार, | बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार, | ||
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तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार। | तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार। | ||
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'अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ। | 'अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ। | ||
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एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ।' | एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ।' | ||
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रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार, | रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार, | ||
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गूँजा रंगभूमि में दुर्योधन का जय-जयकार। | गूँजा रंगभूमि में दुर्योधन का जय-जयकार। | ||
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कर्ण चकित रह गया सुयोधन की इस परम कृपा से, | कर्ण चकित रह गया सुयोधन की इस परम कृपा से, | ||
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फूट पड़ा मारे कृतज्ञता के भर उसे भुजा से। | फूट पड़ा मारे कृतज्ञता के भर उसे भुजा से। | ||
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दुर्योधन ने हृदय लगा कर कहा-'बन्धु! हो शान्त, | दुर्योधन ने हृदय लगा कर कहा-'बन्धु! हो शान्त, | ||
− | + | मेरे इस क्षुद्रोपहार से क्यों होता उद्भ्रान्त? | |
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'किया कौन-सा त्याग अनोखा, दिया राज यदि तुझको! | 'किया कौन-सा त्याग अनोखा, दिया राज यदि तुझको! | ||
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अरे, धन्य हो जायँ प्राण, तू ग्रहण करे यदि मुझको ।' | अरे, धन्य हो जायँ प्राण, तू ग्रहण करे यदि मुझको ।' | ||
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कर्ण और गल गया,' हाय, मुझ पर भी इतना स्नेह! | कर्ण और गल गया,' हाय, मुझ पर भी इतना स्नेह! | ||
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वीर बन्धु! हम हुए आज से एक प्राण, दो देह। | वीर बन्धु! हम हुए आज से एक प्राण, दो देह। | ||
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'भरी सभा के बीच आज तूने जो मान दिया है, | 'भरी सभा के बीच आज तूने जो मान दिया है, | ||
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पहले-पहल मुझे जीवन में जो उत्थान दिया है। | पहले-पहल मुझे जीवन में जो उत्थान दिया है। | ||
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उऋण भला होऊँगा उससे चुका कौन-सा दाम? | उऋण भला होऊँगा उससे चुका कौन-सा दाम? | ||
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कृपा करें दिनमान कि आऊँ तेरे कोई काम।' | कृपा करें दिनमान कि आऊँ तेरे कोई काम।' | ||
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घेर खड़े हो गये कर्ण को मुदित, मुग्ध पुरवासी, | घेर खड़े हो गये कर्ण को मुदित, मुग्ध पुरवासी, | ||
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होते ही हैं लोग शूरता-पूजन के अभिलाषी। | होते ही हैं लोग शूरता-पूजन के अभिलाषी। | ||
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चाहे जो भी कहे द्वेष, ईर्ष्या, मिथ्या अभिमान, | चाहे जो भी कहे द्वेष, ईर्ष्या, मिथ्या अभिमान, | ||
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जनता निज आराध्य वीर को, पर लेती पहचान। | जनता निज आराध्य वीर को, पर लेती पहचान। | ||
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22:19, 29 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
'करना क्या अपमान ठीक है इस अनमोल रतन का,
मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का।
बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,
तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।
'अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ।
एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ।'
रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,
गूँजा रंगभूमि में दुर्योधन का जय-जयकार।
कर्ण चकित रह गया सुयोधन की इस परम कृपा से,
फूट पड़ा मारे कृतज्ञता के भर उसे भुजा से।
दुर्योधन ने हृदय लगा कर कहा-'बन्धु! हो शान्त,
मेरे इस क्षुद्रोपहार से क्यों होता उद्भ्रान्त?
'किया कौन-सा त्याग अनोखा, दिया राज यदि तुझको!
अरे, धन्य हो जायँ प्राण, तू ग्रहण करे यदि मुझको ।'
कर्ण और गल गया,' हाय, मुझ पर भी इतना स्नेह!
वीर बन्धु! हम हुए आज से एक प्राण, दो देह।
'भरी सभा के बीच आज तूने जो मान दिया है,
पहले-पहल मुझे जीवन में जो उत्थान दिया है।
उऋण भला होऊँगा उससे चुका कौन-सा दाम?
कृपा करें दिनमान कि आऊँ तेरे कोई काम।'
घेर खड़े हो गये कर्ण को मुदित, मुग्ध पुरवासी,
होते ही हैं लोग शूरता-पूजन के अभिलाषी।
चाहे जो भी कहे द्वेष, ईर्ष्या, मिथ्या अभिमान,
जनता निज आराध्य वीर को, पर लेती पहचान।