"रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 3" के अवतरणों में अंतर
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कर्ण मुग्ध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है, | कर्ण मुग्ध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है, | ||
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कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है, | कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है, | ||
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चढें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं, | चढें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं, | ||
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कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं। | कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं। | ||
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'वृद्ध देह, तप से कृश काया , उस पर आयुध-सञ्चालन, | 'वृद्ध देह, तप से कृश काया , उस पर आयुध-सञ्चालन, | ||
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हाथ, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण। | हाथ, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण। | ||
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किन्तु, वृद्ध होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी, | किन्तु, वृद्ध होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी, | ||
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और रात-दिन मुझ पर दिखलाने रहते ममता कितनी। | और रात-दिन मुझ पर दिखलाने रहते ममता कितनी। | ||
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'कहते हैं , 'ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा, | 'कहते हैं , 'ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा, | ||
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मेरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा? | मेरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा? | ||
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अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा, | अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा, | ||
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सूख जायगा लहू, बचेगा हड्डी-भर ढाँचा तेरा। | सूख जायगा लहू, बचेगा हड्डी-भर ढाँचा तेरा। | ||
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'जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ, | 'जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ, | ||
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और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ। | और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ। | ||
− | + | इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी, | |
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इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी। | इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी। | ||
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'पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय, | 'पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय, | ||
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नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय। | नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय। | ||
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विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर? | विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर? | ||
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कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर। | कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर। | ||
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'ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों? | 'ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों? | ||
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जन्म साथ , शिलोञ्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों? | जन्म साथ , शिलोञ्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों? | ||
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क्या विचित्र रचना समाज की? गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में, | क्या विचित्र रचना समाज की? गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में, | ||
− | + | मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्ग क्षत्रिय-कर में। | |
− | मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा | + | </poem> |
22:35, 29 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
कर्ण मुग्ध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है,
कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है,
चढें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं,
कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं।
'वृद्ध देह, तप से कृश काया , उस पर आयुध-सञ्चालन,
हाथ, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण।
किन्तु, वृद्ध होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी,
और रात-दिन मुझ पर दिखलाने रहते ममता कितनी।
'कहते हैं , 'ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा,
मेरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा?
अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा,
सूख जायगा लहू, बचेगा हड्डी-भर ढाँचा तेरा।
'जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ,
और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ।
इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी,
इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी।
'पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय,
नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।
विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर?
कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर।
'ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों?
जन्म साथ , शिलोञ्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों?
क्या विचित्र रचना समाज की? गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में,
मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्ग क्षत्रिय-कर में।