"रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 9" के अवतरणों में अंतर
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'सहनशीलता को अपनाकर ब्राह्मण कभी न जीता है, | 'सहनशीलता को अपनाकर ब्राह्मण कभी न जीता है, | ||
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किसी लक्ष्य के लिए नहीं अपमान-हलाहल पीता है। | किसी लक्ष्य के लिए नहीं अपमान-हलाहल पीता है। | ||
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सह सकता जो कठिन वेदना, पी सकता अपमान वही, | सह सकता जो कठिन वेदना, पी सकता अपमान वही, | ||
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बुद्धि चलाती जिसे, तेज का कर सकता बलिदान वही। | बुद्धि चलाती जिसे, तेज का कर सकता बलिदान वही। | ||
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'तेज-पुञ्ज ब्राह्मण तिल-तिल कर जले, नहीं यह हो सकता, | 'तेज-पुञ्ज ब्राह्मण तिल-तिल कर जले, नहीं यह हो सकता, | ||
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किसी दशा में भी स्वभाव अपना वह कैसे खो सकता? | किसी दशा में भी स्वभाव अपना वह कैसे खो सकता? | ||
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कसक भोगता हुआ विप्र निश्चल कैसे रह सकता है? | कसक भोगता हुआ विप्र निश्चल कैसे रह सकता है? | ||
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इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है। | इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है। | ||
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'तू अवश्य क्षत्रिय है, पापी! बता, न तो, फल पायेगा, | 'तू अवश्य क्षत्रिय है, पापी! बता, न तो, फल पायेगा, | ||
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परशुराम के कठिन शाप से अभी भस्म हो जायेगा।' | परशुराम के कठिन शाप से अभी भस्म हो जायेगा।' | ||
− | + | 'क्षमा, क्षमा हे देव दयामय!' गिरा कर्ण गुरु के पद पर, | |
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मुख विवर्ण हो गया, अंग काँपने लगे भय से थर-थर! | मुख विवर्ण हो गया, अंग काँपने लगे भय से थर-थर! | ||
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'सूत-पूत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ, | 'सूत-पूत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ, | ||
− | + | जो भी हूँ, पर, देव, आपका अनुचर अन्तेवासी हूँ | |
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छली नहीं मैं हाय, किन्तु छल का ही तो यह काम हुआ, | छली नहीं मैं हाय, किन्तु छल का ही तो यह काम हुआ, | ||
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आया था विद्या-संचय को, किन्तु , व्यर्थ बदनाम हुआ। | आया था विद्या-संचय को, किन्तु , व्यर्थ बदनाम हुआ। | ||
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'बड़ा लोभ था, बनूँ शिष्य मैं कार्त्तवीर्य के जेता का , | 'बड़ा लोभ था, बनूँ शिष्य मैं कार्त्तवीर्य के जेता का , | ||
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तपोदीप्त शूरमा, विश्व के नूतन धर्म-प्रणेता का। | तपोदीप्त शूरमा, विश्व के नूतन धर्म-प्रणेता का। | ||
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पर, शंका थी मुझे, सत्य का अगर पता पा जायेंगे, | पर, शंका थी मुझे, सत्य का अगर पता पा जायेंगे, | ||
− | + | महाराज मुझ सूत-पुत्र को कुछ भी नहीं सिखायेंगे। | |
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'बता सका मैं नहीं इसी से प्रभो! जाति अपनी छोटी, | 'बता सका मैं नहीं इसी से प्रभो! जाति अपनी छोटी, | ||
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करें देव विश्वास, भावना और न थी कोई खोटी। | करें देव विश्वास, भावना और न थी कोई खोटी। | ||
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पर इतने से भी लज्जा में हाय, गड़ा-सा जाता हूँ, | पर इतने से भी लज्जा में हाय, गड़ा-सा जाता हूँ, | ||
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मारे बिना हृदय में अपने-आप मरा-सा जाता हूँ। | मारे बिना हृदय में अपने-आप मरा-सा जाता हूँ। | ||
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22:43, 29 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
'सहनशीलता को अपनाकर ब्राह्मण कभी न जीता है,
किसी लक्ष्य के लिए नहीं अपमान-हलाहल पीता है।
सह सकता जो कठिन वेदना, पी सकता अपमान वही,
बुद्धि चलाती जिसे, तेज का कर सकता बलिदान वही।
'तेज-पुञ्ज ब्राह्मण तिल-तिल कर जले, नहीं यह हो सकता,
किसी दशा में भी स्वभाव अपना वह कैसे खो सकता?
कसक भोगता हुआ विप्र निश्चल कैसे रह सकता है?
इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है।
'तू अवश्य क्षत्रिय है, पापी! बता, न तो, फल पायेगा,
परशुराम के कठिन शाप से अभी भस्म हो जायेगा।'
'क्षमा, क्षमा हे देव दयामय!' गिरा कर्ण गुरु के पद पर,
मुख विवर्ण हो गया, अंग काँपने लगे भय से थर-थर!
'सूत-पूत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ,
जो भी हूँ, पर, देव, आपका अनुचर अन्तेवासी हूँ
छली नहीं मैं हाय, किन्तु छल का ही तो यह काम हुआ,
आया था विद्या-संचय को, किन्तु , व्यर्थ बदनाम हुआ।
'बड़ा लोभ था, बनूँ शिष्य मैं कार्त्तवीर्य के जेता का ,
तपोदीप्त शूरमा, विश्व के नूतन धर्म-प्रणेता का।
पर, शंका थी मुझे, सत्य का अगर पता पा जायेंगे,
महाराज मुझ सूत-पुत्र को कुछ भी नहीं सिखायेंगे।
'बता सका मैं नहीं इसी से प्रभो! जाति अपनी छोटी,
करें देव विश्वास, भावना और न थी कोई खोटी।
पर इतने से भी लज्जा में हाय, गड़ा-सा जाता हूँ,
मारे बिना हृदय में अपने-आप मरा-सा जाता हूँ।