भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"दिन में जीता हूँ मगर रात में मर जाता हूँ / अजय सहाब" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अजय सहाब |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
10:46, 5 सितम्बर 2020 के समय का अवतरण
दिन में जीता हूँ मगर रात में मर जाता हूँ
इक जहन्नम सा है यादों का जिधर जाता हूँ
मैंने तुझ जैसे किसी शख़्स को चाहा था कभी
अब तो इस बात को सोचूं भी तो डर जाता हूँ
कोई दरिया है तसव्वुर के किसी कोने में
जिस में हर शाम मैं चुपचाप उतर जाता हूँ
अब कोई प्यार जताए तो हंसी आती है
एक बेज़ारी के अहसास से भर जाता हूँ
अब तो उस राह पे वो दोस्त ,न यादें उसकी
फिर भी जाता हूँ तो पत्थर सा ठहर जाता हूँ
कोई अब मुझको संभाले तो फिसलता हूँ 'सहाब'
कोई अब मुझको समेटे तो बिखर जाता हूँ