"सो गई है मनुजता की संवेदना / जगदीश व्योम" के अवतरणों में अंतर
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सो गई है मनुजता की संवेदना | सो गई है मनुजता की संवेदना | ||
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गीत के रूप में भैरवी गाइए | गीत के रूप में भैरवी गाइए | ||
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गा न पाओ अगर जागरण के लिए | गा न पाओ अगर जागरण के लिए | ||
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कारवां छोड़कर अपने घर जाइए | कारवां छोड़कर अपने घर जाइए | ||
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कह दिया इसलिए लड़खड़ाने लगी | कह दिया इसलिए लड़खड़ाने लगी | ||
सत्य ऐसा कहो, जो न हो निर्वसन | सत्य ऐसा कहो, जो न हो निर्वसन | ||
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उसको शब्दों का परिधान पहनाइए। | उसको शब्दों का परिधान पहनाइए। | ||
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काव्य की कुलवधू हाशिए पर खड़ी | काव्य की कुलवधू हाशिए पर खड़ी | ||
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ओढ़कर त्रासदी का मलिन आवरण | ओढ़कर त्रासदी का मलिन आवरण | ||
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चन्द सिक्कों में बिकती रही ज़िंदगी | चन्द सिक्कों में बिकती रही ज़िंदगी | ||
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और नीलाम होते रहे आचरण | और नीलाम होते रहे आचरण | ||
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लेखनी छुप के आंसू बहाती रही | लेखनी छुप के आंसू बहाती रही | ||
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उनको रखने को गंगाजली चाहिए। | उनको रखने को गंगाजली चाहिए। | ||
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राजमहलों के कालीन की कोख में | राजमहलों के कालीन की कोख में | ||
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कितनी रंभाओं का है कुंआरा स्र्दन | कितनी रंभाओं का है कुंआरा स्र्दन | ||
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देह की हाट में भूख की त्रासदी | देह की हाट में भूख की त्रासदी | ||
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और भी कुछ है तो उम्र भर की घुटन | और भी कुछ है तो उम्र भर की घुटन | ||
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इस घुटन को उपेक्षा बहुत मिल चुकी | इस घुटन को उपेक्षा बहुत मिल चुकी | ||
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अब तो जीने का अधिकार दिलवाइए। | अब तो जीने का अधिकार दिलवाइए। | ||
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भूख के प'श्न हल कर रहा जो उसे | भूख के प'श्न हल कर रहा जो उसे | ||
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है जरूरत नहीं कोई कुछ ज्ञान दे | है जरूरत नहीं कोई कुछ ज्ञान दे | ||
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कर्म से हो विमुख व्यक्ति गीता रटे | कर्म से हो विमुख व्यक्ति गीता रटे | ||
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और चाहे कि युग उसको सम्मान दे | और चाहे कि युग उसको सम्मान दे | ||
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ऐसे भूले पथिक को पतित पंक से | ऐसे भूले पथिक को पतित पंक से | ||
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खींच कर कर्म के पंथ पर लाइए। | खींच कर कर्म के पंथ पर लाइए। | ||
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कोई भी तो नहीं दूध का है धुला | कोई भी तो नहीं दूध का है धुला | ||
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है प्रदूषित समूचा ही पर्यावरण | है प्रदूषित समूचा ही पर्यावरण | ||
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कोई नंगा खड़ा वक्त की हाट में | कोई नंगा खड़ा वक्त की हाट में | ||
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कोई ओढ़े हुए झूठ का आवरण | कोई ओढ़े हुए झूठ का आवरण | ||
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सभ्यता के नगर का है दस्तूर ये | सभ्यता के नगर का है दस्तूर ये | ||
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इनमें ढल जाइए या चले आइए। | इनमें ढल जाइए या चले आइए। | ||
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-डॉ॰ जगदीश व्योम | -डॉ॰ जगदीश व्योम |
18:00, 8 अगस्त 2006 का अवतरण
सो गई है मनुजता की संवेदना
गीत के रूप में भैरवी गाइए
गा न पाओ अगर जागरण के लिए
कारवां छोड़कर अपने घर जाइए
झूठ की चाशनी में पगी ज़िंदगी आजकल स्वाद में कुछ खटाने लगी सत्य सुनने की आदी नहीं है हवा कह दिया इसलिए लड़खड़ाने लगी सत्य ऐसा कहो, जो न हो निर्वसन
उसको शब्दों का परिधान पहनाइए।
काव्य की कुलवधू हाशिए पर खड़ी
ओढ़कर त्रासदी का मलिन आवरण
चन्द सिक्कों में बिकती रही ज़िंदगी
और नीलाम होते रहे आचरण
लेखनी छुप के आंसू बहाती रही
उनको रखने को गंगाजली चाहिए।
राजमहलों के कालीन की कोख में
कितनी रंभाओं का है कुंआरा स्र्दन
देह की हाट में भूख की त्रासदी
और भी कुछ है तो उम्र भर की घुटन
इस घुटन को उपेक्षा बहुत मिल चुकी
अब तो जीने का अधिकार दिलवाइए।
भूख के प'श्न हल कर रहा जो उसे
है जरूरत नहीं कोई कुछ ज्ञान दे
कर्म से हो विमुख व्यक्ति गीता रटे
और चाहे कि युग उसको सम्मान दे
ऐसे भूले पथिक को पतित पंक से
खींच कर कर्म के पंथ पर लाइए।
कोई भी तो नहीं दूध का है धुला
है प्रदूषित समूचा ही पर्यावरण
कोई नंगा खड़ा वक्त की हाट में
कोई ओढ़े हुए झूठ का आवरण
सभ्यता के नगर का है दस्तूर ये
इनमें ढल जाइए या चले आइए।
-डॉ॰ जगदीश व्योम