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"यह भी सुनते हैं के ख़ालिक़ का पता कोई नहीं / अंबर खरबंदा" के अवतरणों में अंतर
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यह भी सुनते हैं के ख़ालिक़ का पता कोई नहीं
येह भी सच है उसको दिल से ढूँढता कोई नहीं
किरचियाँ ही किरचियाँ बिखरी हैं रिश्तों की यहाँ
ग़मज़दा आँखों में लेकिन झाँकता कोई नहीं
दोस्ती, ईसार, उल्फ़त, कारे-ला-हासिल हैं सब
लाख समझाया है लेकिन मानता कोई नहीं
दिल्लगी, दिल की लगी बन जाए हो सकता तो है
दिल लगाते वक़्त लेकिन सोचता कोई नहीं
अब तो सजती हैं यहाँ बस मस्लहत की मंडियाँ
अब यहाँ इल्मो-हुनर को पूछता कोई नहीं
बेहिसी इस शहर पर ऐसे मुसल्लत हो गयी
हादिसा दर हादिसा हो चौंकता कोई नहीं
ग़म तो ‘अंबर’ जी मिलेंगे हर क़दम पर, हाँ मगर
जैसे तुम टूटे हो ऐसे टूटता कोई नहीं