भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"यह भी सुनते हैं के ख़ालिक़ का पता कोई नहीं / अंबर खरबंदा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अंबर खरबंदा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

12:28, 7 सितम्बर 2020 के समय का अवतरण

 
यह भी सुनते हैं के ख़ालिक़ का पता कोई नहीं
येह भी सच है उसको दिल से ढूँढता कोई नहीं

किरचियाँ ही किरचियाँ बिखरी हैं रिश्तों की यहाँ
ग़मज़दा आँखों में लेकिन झाँकता कोई नहीं

दोस्ती, ईसार, उल्फ़त, कारे-ला-हासिल हैं सब
लाख समझाया है लेकिन मानता कोई नहीं

दिल्लगी, दिल की लगी बन जाए हो सकता तो है
दिल लगाते वक़्त लेकिन सोचता कोई नहीं

अब तो सजती हैं यहाँ बस मस्लहत की मंडियाँ
अब यहाँ इल्मो-हुनर को पूछता कोई नहीं

 बेहिसी इस शहर पर ऐसे मुसल्लत हो गयी
 हादिसा दर हादिसा हो चौंकता कोई नहीं

 ग़म तो ‘अंबर’ जी मिलेंगे हर क़दम पर, हाँ मगर
 जैसे तुम टूटे हो ऐसे टूटता कोई नहीं