भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ग़लत-बयानी पे उस की यक़ीं दिखाती रही / नुसरत मेहदी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नुसरत मेहदी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

12:59, 7 सितम्बर 2020 के समय का अवतरण

ग़लत-बयानी पे उस की यक़ीं दिखाती रही
मैं सब समझती रही और मुस्कुराती रही

ये सोच कर कि तग़ाफ़ुल तो उस की फ़ितरत है
मैं अपने दिल को बड़ी देर तक मनाती रही

उसे तो लौट के आना ही था वो लौट आया
मगर वो आया तो हाथों से उम्र जाती रही

अजब रिवायती औरत है ज़िंदगी मेरी
हमेशा हस्ब-ए-ज़रूरत ही चाही जाती रही

उसे चमन की बहार-ओ-ख़िज़ाँ से क्या मतलब
वो एक भोली सी चिड़िया थी चहचहाती रही

वो दिन कि बोझ कड़ी धूप में उठाता रहा
मैं रतजगों की थकन ओढ़ती बिछाती रही

नज़र में रहना था 'नुसरत' तो उस की पलकों से
तमाम उम्र मैं गर्द-ए-सफ़र हटाती रही