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Kavita Kosh से
"प्यासा हूँ, मैं अब भी प्यासा,
संतुष्ट ओध से मैं न हुआ।
आया फिर भी वह चला गया,
तृष्णा को तनिक न चैन हुआ।
देवों की सृष्टि विलिन हुई,अनुशीलन में अनुदिन मेरे,मेरे। मेरा अतिविचार अतिचार न बंद हुआ ,
उन्मत्त रहा सबको घेरे।
मेरी उपासना करते वे,
मेरा संकेत विधान बना।
विस्तृत जो मोह रहा मेरा,
वह देव-विलास-वितान तना।
उनका मैं कृतिमय जीवन था।
जो आकर्षण बन हँसती थी,रति थी अनादि-वासना वही,वही। अव्यक्त-प्रकृति-उन्मीलन के,
अंतर में उसकी चाह रही।
हम दोनों का अस्तित्व रहा,
उस आरंभिक आवर्त्तन-सा।
जिससे संसृति का बनता है,
आकार रूप के नर्त्तन-सा।
दो रूप मधुर जो ढाल सका।"
"वह मूल शक्ति उठ खडी खड़ी हुई,अपने आलस का त्याग किये,किये। परमाणु बल सब दौड़ पडेपड़े,
जिसका सुंदर अनुराग लिये।
कुंकुम का चूर्ण उडाते उड़ाते से , मिलने को गले ललकते से,से। अंतरिक्ष में मधु-उत्सव के,
विद्युत्कण मिले झलकते से।
वह आकर्षण, वह मिलन हुआ,
प्रारंभ माधुरी छाया में।
जिसको कहते सब सृष्टि,बनी
मतवाली माया में।
मादक मरंद की वृष्टि रही।
भुज-लता पड़ी सरिताओं की,
शैलों के गले सनाथ हुए।
जलनिधि का अंचल व्यजन बना,
धरणी के दो-दो साथ हुए।
"सुरबालाओं की सखी रही,
उनकी हृत्त्री की लय थी
रति, उनके मन को सुलझाती,
वह राग-भरी थी, मधुमय थी।
मैं तृष्णा था विकसित करता,
वह तृप्ति दिखती थी उनकी,
आनन्द-समन्वय होता था
हम ले चलते पथ पर उनको।
वे अमर रहे न विनोद रहा,
चेतना रही, अनंग हुआ,हुआ। हूँ भटक रहा अस्तित्व लिये ,
संचित का सरल प्रंसग हुआ।"
"यह नीड नीड़ मनोहर कृतियों का,यह विश्व कर्म रंगस्थल है,है। है परंपरा लग रही यहाँ,
ठहरा जिसमें जितना बल है।
वे कितने ऐसे होते हैं
जो केवल साधन बनते हैं।
आरंभ और परिणामों को,
संबध सूत्र से बुनते हैं।
ऊषा की सज़ल गुलाली जो केवल साधन बनते हैं, उषा की सजल गुलाली जो घुलती है नीले अंबर में में। वह क्या? क्या तुम देख रहे,
वर्णों के मेघाडंबर में?
अंतर है दिन औ 'रजनी का यह, साधक-कर्म बिखरता है। माया के नीले अंचल में,आलोक बिदु-सा झरता है।"
दोनों का समुचित परिवर्त्तन,
जीवन में शुद्ध विकास हुआ।
प्रेरणा अधिक अब स्पष्ट हुई,
जब विप्लव में पड़ ह्रास हुआ।
मनु आँख खोलकर पूछ रहे-
"पथ कौन वहाँ पहुँचाता है?
उस ज्योतिमयी को देव कहो,
कैसे कोई नर पाता है?"