"रहस्य / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
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चिर-वसंत का यह उदगम है, | चिर-वसंत का यह उदगम है, | ||
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पतझर होता एक ओर है, | पतझर होता एक ओर है, | ||
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अमृत हलाहल यहाँ मिले है, | अमृत हलाहल यहाँ मिले है, | ||
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सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" | सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।" | ||
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"सुदंर यह तुमने दिखलाया, | "सुदंर यह तुमने दिखलाया, | ||
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किंतु कौन वह श्याम देश है? | किंतु कौन वह श्याम देश है? | ||
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कामायनी बताओ उसमें, | कामायनी बताओ उसमें, | ||
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क्या रहस्य रहता विशेष है" | क्या रहस्य रहता विशेष है" | ||
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"मनु यह श्यामल कर्म लोक है, | "मनु यह श्यामल कर्म लोक है, | ||
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धुँधला कुछ-कुछ अधंकार-सा | धुँधला कुछ-कुछ अधंकार-सा | ||
− | + | सघन हो रहा अविज्ञात | |
− | सघन हो रहा अविज्ञात | + | |
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यह देश, मलिन है धूम-धार सा। | यह देश, मलिन है धूम-धार सा। | ||
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कर्म-चक्र-सा घूम रहा है, | कर्म-चक्र-सा घूम रहा है, | ||
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यह गोलक, बन नियति-प्रेरणा, | यह गोलक, बन नियति-प्रेरणा, | ||
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सब के पीछे लगी हुई है, | सब के पीछे लगी हुई है, | ||
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कोई व्याकुल नयी एषणा। | कोई व्याकुल नयी एषणा। | ||
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श्रममय कोलाहल, पीडनमय, | श्रममय कोलाहल, पीडनमय, | ||
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विकल प्रवर्तन महायंत्र का, | विकल प्रवर्तन महायंत्र का, | ||
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क्षण भर भी विश्राम नहीं है, | क्षण भर भी विश्राम नहीं है, | ||
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प्राण दास हैं क्रिया-तंत्र का। | प्राण दास हैं क्रिया-तंत्र का। | ||
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भाव-राज्य के सकल मानसिक, | भाव-राज्य के सकल मानसिक, | ||
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सुख यों दुख में बदल रहे हैं, | सुख यों दुख में बदल रहे हैं, | ||
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हिंसा गर्वोन्नत हारों में ये, | हिंसा गर्वोन्नत हारों में ये, | ||
− | + | अकडे अणु टहल रहे हैं। | |
− | अकडे अणु टहल रहे हैं। | + | |
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ये भौतिक संदेह कुछ करके, | ये भौतिक संदेह कुछ करके, | ||
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जीवित रहना यहाँ चाहते, | जीवित रहना यहाँ चाहते, | ||
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भाव-राष्ट्र के नियम यहाँ पर, | भाव-राष्ट्र के नियम यहाँ पर, | ||
− | |||
दंड बने हैं, सब कराहते। | दंड बने हैं, सब कराहते। | ||
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करते हैं, संतोष नहीं है, | करते हैं, संतोष नहीं है, | ||
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जैसे कशाघात-प्रेरित से- | जैसे कशाघात-प्रेरित से- | ||
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प्रति क्षण करते ही जाते हैं, | प्रति क्षण करते ही जाते हैं, | ||
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भीति-विवश ये सब कंपित से। | भीति-विवश ये सब कंपित से। | ||
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नियाते चलाती कर्म-चक्र यह, | नियाते चलाती कर्म-चक्र यह, | ||
− | |||
तृष्णा-जनित ममत्व-वासना, | तृष्णा-जनित ममत्व-वासना, | ||
− | |||
पाणि-पादमय पंचभूत की, | पाणि-पादमय पंचभूत की, | ||
− | |||
यहाँ हो रही है उपासना। | यहाँ हो रही है उपासना। | ||
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यहाँ सतत संघर्ष विफलता, | यहाँ सतत संघर्ष विफलता, | ||
− | |||
कोलाहल का यहाँ राज है, | कोलाहल का यहाँ राज है, | ||
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अंधकार में दौड लग रही | अंधकार में दौड लग रही | ||
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मतवाला यह सब समाज है। | मतवाला यह सब समाज है। | ||
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स्थूल हो रहे रूप बनाकर, | स्थूल हो रहे रूप बनाकर, | ||
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कर्मों की भीषण परिणति है, | कर्मों की भीषण परिणति है, | ||
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आकांक्षा की तीव्र पिपाशा | आकांक्षा की तीव्र पिपाशा | ||
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ममता की यह निर्मम गति है। | ममता की यह निर्मम गति है। | ||
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यहाँ शासनादेश घोषणा, | यहाँ शासनादेश घोषणा, | ||
− | |||
विजयों की हुंकार सुनाती, | विजयों की हुंकार सुनाती, | ||
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यहाँ भूख से विकल दलित को, | यहाँ भूख से विकल दलित को, | ||
− | |||
पदतल में फिर फिर गिरवाती। | पदतल में फिर फिर गिरवाती। | ||
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यहाँ लिये दायित्व कर्म का, | यहाँ लिये दायित्व कर्म का, | ||
− | |||
उन्नति करने के मतवाले, | उन्नति करने के मतवाले, | ||
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जल-जला कर फूट पड रहे | जल-जला कर फूट पड रहे | ||
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ढुल कर बहने वाले छाले। | ढुल कर बहने वाले छाले। | ||
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यहाँ राशिकृत विपुल विभव सब, | यहाँ राशिकृत विपुल विभव सब, | ||
− | |||
मरीचिका-से दीख पड रहे, | मरीचिका-से दीख पड रहे, | ||
− | |||
भाग्यवान बन क्षणिक भोग के वे, | भाग्यवान बन क्षणिक भोग के वे, | ||
− | |||
विलीन, ये पुनः गड रहे। | विलीन, ये पुनः गड रहे। | ||
− | |||
बडी लालसा यहाँ सुयश की, | बडी लालसा यहाँ सुयश की, | ||
− | |||
अपराधों की स्वीकृति बनती, | अपराधों की स्वीकृति बनती, | ||
− | |||
अंध प्रेरणा से परिचालित, | अंध प्रेरणा से परिचालित, | ||
− | |||
कर्ता में करते निज गिनती। | कर्ता में करते निज गिनती। | ||
− | |||
प्राण तत्त्व की सघन साधना जल, | प्राण तत्त्व की सघन साधना जल, | ||
− | |||
हिम उपल यहाँ है बनता, | हिम उपल यहाँ है बनता, | ||
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पयासे घायल हो जल जाते, | पयासे घायल हो जल जाते, | ||
− | + | मर-मर कर जीते ही बनता | |
− | मर-मर कर जीते ही बनता | + | |
− | + | ||
यहाँ नील-लोहित ज्वाला कुछ, | यहाँ नील-लोहित ज्वाला कुछ, | ||
− | |||
जला-जला कर नित्य ढालती, | जला-जला कर नित्य ढालती, | ||
− | |||
चोट सहन कर रुकने वाली धातु, | चोट सहन कर रुकने वाली धातु, | ||
− | |||
न जिसको मृत्यु सालती। | न जिसको मृत्यु सालती। | ||
− | |||
वर्षा के घन नाद कर रहे, | वर्षा के घन नाद कर रहे, | ||
− | |||
तट-कूलों को सहज गिराती, | तट-कूलों को सहज गिराती, | ||
− | |||
प्लावित करती वन कुंजों को, | प्लावित करती वन कुंजों को, | ||
− | |||
लक्ष्य प्राप्ति सरिता बह जाती।" | लक्ष्य प्राप्ति सरिता बह जाती।" | ||
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"बस अब ओर न इसे दिखा तू, | "बस अब ओर न इसे दिखा तू, | ||
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यह अति भीषण कर्म जगत है, | यह अति भीषण कर्म जगत है, | ||
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श्रद्धे वह उज्ज्वल कैसा है, | श्रद्धे वह उज्ज्वल कैसा है, | ||
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जैसे पुंजीभूत रजत है।" | जैसे पुंजीभूत रजत है।" | ||
− | |||
"प्रियतम यह तो ज्ञान क्षेत्र है, | "प्रियतम यह तो ज्ञान क्षेत्र है, | ||
− | |||
सुख-दुख से है उदासीनत, | सुख-दुख से है उदासीनत, | ||
− | |||
यहाँ न्याय निर्मम, चलता है, | यहाँ न्याय निर्मम, चलता है, | ||
− | |||
बुद्धि-चक्र, जिसमें न दीनता। | बुद्धि-चक्र, जिसमें न दीनता। | ||
− | |||
अस्ति-नास्ति का भेद, निरंकुश करते, | अस्ति-नास्ति का भेद, निरंकुश करते, | ||
− | |||
ये अणु तर्क-युक्ति से, | ये अणु तर्क-युक्ति से, | ||
− | + | ये निस्संग, किंतु कर लेते, | |
− | ये निस्संग, किंतु कर लेते, | + | |
− | + | ||
कुछ संबंध-विधान मुक्ति से। | कुछ संबंध-विधान मुक्ति से। | ||
− | |||
यहाँ प्राप्य मिलता है केवल, | यहाँ प्राप्य मिलता है केवल, | ||
− | |||
तृप्ति नहीं, कर भेद बाँटती, | तृप्ति नहीं, कर भेद बाँटती, | ||
− | |||
बुद्धि, विभूति सकल सिकता-सी, | बुद्धि, विभूति सकल सिकता-सी, | ||
− | |||
प्यास लगी है ओस चाटती। | प्यास लगी है ओस चाटती। | ||
− | |||
न्याय, तपस्, ऐश्वर्य में पगे ये, | न्याय, तपस्, ऐश्वर्य में पगे ये, | ||
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प्राणी चमकीले लगते, | प्राणी चमकीले लगते, | ||
− | |||
इस निदाघ मरु में, सूखे से, | इस निदाघ मरु में, सूखे से, | ||
− | |||
स्रोतों के तट जैसे जगते। | स्रोतों के तट जैसे जगते। | ||
− | |||
मनोभाव से काय-कर्म के | मनोभाव से काय-कर्म के | ||
− | |||
समतोलन में दत्तचित्त से, | समतोलन में दत्तचित्त से, | ||
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ये निस्पृह न्यायासन वाले, | ये निस्पृह न्यायासन वाले, | ||
− | |||
चूक न सकते तनिक वित्त से | चूक न सकते तनिक वित्त से | ||
− | |||
अपना परिमित पात्र लिये, | अपना परिमित पात्र लिये, | ||
− | |||
ये बूँद-बूँद वाले निर्झर से, | ये बूँद-बूँद वाले निर्झर से, | ||
− | + | माँग रहे हैं जीवन का रस, | |
− | माँग रहे हैं जीवन का रस, | + | |
− | + | ||
बैठ यहाँ पर अजर-अमर-से। | बैठ यहाँ पर अजर-अमर-से। | ||
− | |||
यहाँ विभाजन धर्म-तुला का, | यहाँ विभाजन धर्म-तुला का, | ||
− | |||
अधिकारों की व्याख्या करता, | अधिकारों की व्याख्या करता, | ||
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यह निरीह, पर कुछ पाकर ही, | यह निरीह, पर कुछ पाकर ही, | ||
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अपनी ढीली साँसे भरता। | अपनी ढीली साँसे भरता। | ||
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उत्तमता इनका निजस्व है, | उत्तमता इनका निजस्व है, | ||
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अंबुज वाले सर सा देखो, | अंबुज वाले सर सा देखो, | ||
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जीवन-मधु एकत्र कर रही, | जीवन-मधु एकत्र कर रही, | ||
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उन सखियों सा बस लेखो। | उन सखियों सा बस लेखो। | ||
− | + | यहाँ शरद की धवल ज्योत्स्ना, | |
− | यहाँ शरद | + | |
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अंधकार को भेद निखरती, | अंधकार को भेद निखरती, | ||
− | + | यह अनवस्था, युगल मिले से, | |
− | यह अनवस्था, युगल मिले से, | + | |
− | + | ||
विकल व्यवस्था सदा बिखरती। | विकल व्यवस्था सदा बिखरती। | ||
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देखो वे सब सौम्य बने हैं, | देखो वे सब सौम्य बने हैं, | ||
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किंतु सशंकित हैं दोषों से, | किंतु सशंकित हैं दोषों से, | ||
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वे संकेत दंभ के चलते, | वे संकेत दंभ के चलते, | ||
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भू-वालन मिस परितोषों से। | भू-वालन मिस परितोषों से। | ||
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यहाँ अछूत रहा जीवन रस, | यहाँ अछूत रहा जीवन रस, | ||
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छूओ मत, संचित होने दो। | छूओ मत, संचित होने दो। | ||
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बस इतना ही भाग तुम्हारा, | बस इतना ही भाग तुम्हारा, | ||
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तृष्णा मृषा, वंचित होने दो। | तृष्णा मृषा, वंचित होने दो। | ||
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सामंजस्य चले करने ये, | सामंजस्य चले करने ये, | ||
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किंतु विषमता फैलाते हैं, | किंतु विषमता फैलाते हैं, | ||
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मूल-स्वत्व कुछ और बताते, | मूल-स्वत्व कुछ और बताते, | ||
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इच्छाओं को झुठलाते हैं। | इच्छाओं को झुठलाते हैं। | ||
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स्वयं व्यस्त पर शांत बने-से, | स्वयं व्यस्त पर शांत बने-से, | ||
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शास्त्र शस्त्र-रक्षा में पलते, | शास्त्र शस्त्र-रक्षा में पलते, | ||
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ये विज्ञान भरे अनुशासन, | ये विज्ञान भरे अनुशासन, | ||
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क्षण क्षण परिवर्त्तन में ढलते। | क्षण क्षण परिवर्त्तन में ढलते। | ||
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यही त्रिपुर है देखा तुमने, | यही त्रिपुर है देखा तुमने, | ||
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तीन बिंदु ज्योतोर्मय इतने, | तीन बिंदु ज्योतोर्मय इतने, | ||
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अपने केन्द्र बने दुख-सुख में, | अपने केन्द्र बने दुख-सुख में, | ||
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भिन्न हुए हैं ये सब कितने | भिन्न हुए हैं ये सब कितने | ||
− | |||
ज्ञान दूर कुछ, क्रिया भिन्न है, | ज्ञान दूर कुछ, क्रिया भिन्न है, | ||
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इच्छा क्यों पूरी हो मन की, | इच्छा क्यों पूरी हो मन की, | ||
− | |||
एक दूसरे से न मिल सके, | एक दूसरे से न मिल सके, | ||
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यह विडंबना है जीवन की।" | यह विडंबना है जीवन की।" | ||
− | |||
महाज्योति-रेख सी बनकर, | महाज्योति-रेख सी बनकर, | ||
− | |||
श्रद्धा की स्मिति दौडी उनमें, | श्रद्धा की स्मिति दौडी उनमें, | ||
− | |||
वे संबद्ध हुए फर सहसा, | वे संबद्ध हुए फर सहसा, | ||
− | |||
जाग उठी थी ज्वाला जिनमें। | जाग उठी थी ज्वाला जिनमें। | ||
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नीचे ऊपर लचकीली वह, | नीचे ऊपर लचकीली वह, | ||
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विषम वायु में धधक रही सी, | विषम वायु में धधक रही सी, | ||
− | + | महाशून्य में ज्वाल सुनहली, | |
− | महाशून्य में ज्वाल सुनहली, | + | |
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सबको कहती 'नहीं नहीं सी। | सबको कहती 'नहीं नहीं सी। | ||
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शक्ति-तंरग प्रलय-पावक का, | शक्ति-तंरग प्रलय-पावक का, | ||
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उस त्रिकोण में निखर-उठा-सा। | उस त्रिकोण में निखर-उठा-सा। | ||
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चितिमय चिता धधकती अविरल, | चितिमय चिता धधकती अविरल, | ||
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महाकाल का विषय नृत्य था, | महाकाल का विषय नृत्य था, | ||
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विश्व रंध्र ज्वाला से भरकर, | विश्व रंध्र ज्वाला से भरकर, | ||
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करता अपना विषम कृत्य था, | करता अपना विषम कृत्य था, | ||
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स्वप्न, स्वाप, जागरण भस्म हो, | स्वप्न, स्वाप, जागरण भस्म हो, | ||
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इच्छा क्रिया ज्ञान मिल लय थे, | इच्छा क्रिया ज्ञान मिल लय थे, | ||
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दिव्य अनाहत पर-निनाद में, | दिव्य अनाहत पर-निनाद में, | ||
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श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे। | श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे। | ||
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22:39, 9 सितम्बर 2020 के समय का अवतरण
चिर-वसंत का यह उदगम है,
पतझर होता एक ओर है,
अमृत हलाहल यहाँ मिले है,
सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।"
"सुदंर यह तुमने दिखलाया,
किंतु कौन वह श्याम देश है?
कामायनी बताओ उसमें,
क्या रहस्य रहता विशेष है"
"मनु यह श्यामल कर्म लोक है,
धुँधला कुछ-कुछ अधंकार-सा
सघन हो रहा अविज्ञात
यह देश, मलिन है धूम-धार सा।
कर्म-चक्र-सा घूम रहा है,
यह गोलक, बन नियति-प्रेरणा,
सब के पीछे लगी हुई है,
कोई व्याकुल नयी एषणा।
श्रममय कोलाहल, पीडनमय,
विकल प्रवर्तन महायंत्र का,
क्षण भर भी विश्राम नहीं है,
प्राण दास हैं क्रिया-तंत्र का।
भाव-राज्य के सकल मानसिक,
सुख यों दुख में बदल रहे हैं,
हिंसा गर्वोन्नत हारों में ये,
अकडे अणु टहल रहे हैं।
ये भौतिक संदेह कुछ करके,
जीवित रहना यहाँ चाहते,
भाव-राष्ट्र के नियम यहाँ पर,
दंड बने हैं, सब कराहते।
करते हैं, संतोष नहीं है,
जैसे कशाघात-प्रेरित से-
प्रति क्षण करते ही जाते हैं,
भीति-विवश ये सब कंपित से।
नियाते चलाती कर्म-चक्र यह,
तृष्णा-जनित ममत्व-वासना,
पाणि-पादमय पंचभूत की,
यहाँ हो रही है उपासना।
यहाँ सतत संघर्ष विफलता,
कोलाहल का यहाँ राज है,
अंधकार में दौड लग रही
मतवाला यह सब समाज है।
स्थूल हो रहे रूप बनाकर,
कर्मों की भीषण परिणति है,
आकांक्षा की तीव्र पिपाशा
ममता की यह निर्मम गति है।
यहाँ शासनादेश घोषणा,
विजयों की हुंकार सुनाती,
यहाँ भूख से विकल दलित को,
पदतल में फिर फिर गिरवाती।
यहाँ लिये दायित्व कर्म का,
उन्नति करने के मतवाले,
जल-जला कर फूट पड रहे
ढुल कर बहने वाले छाले।
यहाँ राशिकृत विपुल विभव सब,
मरीचिका-से दीख पड रहे,
भाग्यवान बन क्षणिक भोग के वे,
विलीन, ये पुनः गड रहे।
बडी लालसा यहाँ सुयश की,
अपराधों की स्वीकृति बनती,
अंध प्रेरणा से परिचालित,
कर्ता में करते निज गिनती।
प्राण तत्त्व की सघन साधना जल,
हिम उपल यहाँ है बनता,
पयासे घायल हो जल जाते,
मर-मर कर जीते ही बनता
यहाँ नील-लोहित ज्वाला कुछ,
जला-जला कर नित्य ढालती,
चोट सहन कर रुकने वाली धातु,
न जिसको मृत्यु सालती।
वर्षा के घन नाद कर रहे,
तट-कूलों को सहज गिराती,
प्लावित करती वन कुंजों को,
लक्ष्य प्राप्ति सरिता बह जाती।"
"बस अब ओर न इसे दिखा तू,
यह अति भीषण कर्म जगत है,
श्रद्धे वह उज्ज्वल कैसा है,
जैसे पुंजीभूत रजत है।"
"प्रियतम यह तो ज्ञान क्षेत्र है,
सुख-दुख से है उदासीनत,
यहाँ न्याय निर्मम, चलता है,
बुद्धि-चक्र, जिसमें न दीनता।
अस्ति-नास्ति का भेद, निरंकुश करते,
ये अणु तर्क-युक्ति से,
ये निस्संग, किंतु कर लेते,
कुछ संबंध-विधान मुक्ति से।
यहाँ प्राप्य मिलता है केवल,
तृप्ति नहीं, कर भेद बाँटती,
बुद्धि, विभूति सकल सिकता-सी,
प्यास लगी है ओस चाटती।
न्याय, तपस्, ऐश्वर्य में पगे ये,
प्राणी चमकीले लगते,
इस निदाघ मरु में, सूखे से,
स्रोतों के तट जैसे जगते।
मनोभाव से काय-कर्म के
समतोलन में दत्तचित्त से,
ये निस्पृह न्यायासन वाले,
चूक न सकते तनिक वित्त से
अपना परिमित पात्र लिये,
ये बूँद-बूँद वाले निर्झर से,
माँग रहे हैं जीवन का रस,
बैठ यहाँ पर अजर-अमर-से।
यहाँ विभाजन धर्म-तुला का,
अधिकारों की व्याख्या करता,
यह निरीह, पर कुछ पाकर ही,
अपनी ढीली साँसे भरता।
उत्तमता इनका निजस्व है,
अंबुज वाले सर सा देखो,
जीवन-मधु एकत्र कर रही,
उन सखियों सा बस लेखो।
यहाँ शरद की धवल ज्योत्स्ना,
अंधकार को भेद निखरती,
यह अनवस्था, युगल मिले से,
विकल व्यवस्था सदा बिखरती।
देखो वे सब सौम्य बने हैं,
किंतु सशंकित हैं दोषों से,
वे संकेत दंभ के चलते,
भू-वालन मिस परितोषों से।
यहाँ अछूत रहा जीवन रस,
छूओ मत, संचित होने दो।
बस इतना ही भाग तुम्हारा,
तृष्णा मृषा, वंचित होने दो।
सामंजस्य चले करने ये,
किंतु विषमता फैलाते हैं,
मूल-स्वत्व कुछ और बताते,
इच्छाओं को झुठलाते हैं।
स्वयं व्यस्त पर शांत बने-से,
शास्त्र शस्त्र-रक्षा में पलते,
ये विज्ञान भरे अनुशासन,
क्षण क्षण परिवर्त्तन में ढलते।
यही त्रिपुर है देखा तुमने,
तीन बिंदु ज्योतोर्मय इतने,
अपने केन्द्र बने दुख-सुख में,
भिन्न हुए हैं ये सब कितने
ज्ञान दूर कुछ, क्रिया भिन्न है,
इच्छा क्यों पूरी हो मन की,
एक दूसरे से न मिल सके,
यह विडंबना है जीवन की।"
महाज्योति-रेख सी बनकर,
श्रद्धा की स्मिति दौडी उनमें,
वे संबद्ध हुए फर सहसा,
जाग उठी थी ज्वाला जिनमें।
नीचे ऊपर लचकीली वह,
विषम वायु में धधक रही सी,
महाशून्य में ज्वाल सुनहली,
सबको कहती 'नहीं नहीं सी।
शक्ति-तंरग प्रलय-पावक का,
उस त्रिकोण में निखर-उठा-सा।
चितिमय चिता धधकती अविरल,
महाकाल का विषय नृत्य था,
विश्व रंध्र ज्वाला से भरकर,
करता अपना विषम कृत्य था,
स्वप्न, स्वाप, जागरण भस्म हो,
इच्छा क्रिया ज्ञान मिल लय थे,
दिव्य अनाहत पर-निनाद में,
श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे।