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पगडंडी / विजेन्द्र

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|रचनाकार= विजेन्द्र|अनुवादक=|संग्रह=पहले तुम्हारा खिलना / विजेन्द्र
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<poem>
मैं जहाँ तक चला हूँ
वहीं तक
मेरी पगडंडी पगडण्डी हैउसके आगे फिर -
पथरीली कँकरीली धरती है
और घने वन
गूँजते थर्राते ढलान
वहाँ अभी कोई पथ नहीं
न कोई पगडंडीपगडण्डी
वहाँ सबसे पहले जो जाएगा
वही होगा मेरा कवि।कवि ।मैं अपनी पगडंडीपगडण्डी
अलग भले न बनाऊँ
पर जो दूसरों ने
उन्हें धुँधलाऊँ नहीं
उन्हें विकृत न होने दूँ
पशुओं के पैने खुर -जिन आभामय अंकुरों अँकुरों को खूंदकर खूँदकर गएउन्हें उगा नहीं सकते -पहली पगडंडी पगडण्डी पर चलकरआगे अपनी बनाना ही -
कविता है।
 
डरो मत...
मैं हर बार
बनी-बनाई पगडंडियों पगडण्डियों से
चलकर ही
नयी पगडंडियॉं पगडण्डियॉं बनाता हूँ - पिता की पगडंडी पगडण्डी पर भले ही मैं न चलूँ
पर अपने लिए
बेहतर और ऐश्वर्यवान पगडंडी पगडण्डी तो बनाऊँ
पर उनका क्या
जिन्हें -आगे-आगे बनी पगडंडियॉंपगडण्डियाँ
दिखाई नहीं देतीं !
</poem>
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