"अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर
Sandeep Sethi (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी | |रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी | ||
+ | |अनुवादक= | ||
|संग्रह= | |संग्रह= | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatGhazal}} | |
− | अब अक्सर चुप-चुप से | + | <poem> |
− | पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं | + | अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभी लब खोले हैं |
+ | पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं | ||
− | दिन में हम को देखने वालो अपने-अपने हैं औक़ाब | + | दिन में हम को देखने वालो अपने-अपने हैं औक़ाब |
− | जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं | + | जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं |
− | फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई | + | फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई |
− | कहने की नौबत ही न आई हम भी कसू के हो ले हैं | + | कहने की नौबत ही न आई हम भी कसू के हो ले हैं |
− | बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर | + | बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर |
− | डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं | + | डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं |
− | उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदें | + | उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदें |
− | हाय वो आलम जुम्बिश-ए-मिज़गाँ जब फ़ितने पर तोले हैं | + | हाय वो आलम जुम्बिश-ए-मिज़गाँ जब फ़ितने पर तोले हैं |
− | इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम होये है नदीम | + | इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम होये है नदीम |
− | ख़ल्वत में वो नर्म उँगलियाँ बंद-ए-क़बा जब खोले हैं | + | ख़ल्वत में वो नर्म उँगलियाँ बंद-ए-क़बा जब खोले हैं |
− | ग़म का फ़साना सुनने वालो आख़िर्-ए-शब आराम करो | + | ग़म का फ़साना सुनने वालो आख़िर्-ए-शब आराम करो |
− | कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं | + | कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं |
− | हम लोग अब तो पराये-से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फ़िराक़" | + | हम लोग अब तो पराये-से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फ़िराक़" |
अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं | अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं | ||
+ | </poem> |
16:26, 25 अक्टूबर 2020 के समय का अवतरण
अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभी लब खोले हैं
पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं
दिन में हम को देखने वालो अपने-अपने हैं औक़ाब
जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं
फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी कसू के हो ले हैं
बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं
उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदें
हाय वो आलम जुम्बिश-ए-मिज़गाँ जब फ़ितने पर तोले हैं
इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम होये है नदीम
ख़ल्वत में वो नर्म उँगलियाँ बंद-ए-क़बा जब खोले हैं
ग़म का फ़साना सुनने वालो आख़िर्-ए-शब आराम करो
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं
हम लोग अब तो पराये-से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फ़िराक़"
अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं